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श्री जगन्नाथाष्टकम्  |
श्रीपाद शंकराचार्य |
भाषा: हिन्दी | English | தமிழ் | ಕನ್ನಡ | മലയാളം | తెలుగు | ગુજરાતી | বাংলা | ଓଡ଼ିଆ | ਗੁਰਮੁਖੀ | |
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कदाचित कालिन्दितट-विपिन-सङ्गीत-तरवो
मुदाभीरीनारी-वदनकमलास्वाद-मधुपः।
रमा-शम्भु-ब्रह्मामरपति-गणेशार्चितपदो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥1॥ |
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भुजे सवये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे
दुकूलं नेत्रान्ते सहचरि-कटाक्षं विदधते।
सदा श्रीमद्वृन्दावन-वसति-लीलापरिचयो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥2॥ |
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महाम्भोधेस्तीरे कनकरुचिरे नीलशिखरे
वसन् प्रासादान्त सहज-बलभद्रेण बलिना।
सुभद्रा-मध्यस्थः सकल-सुर-सेवावसरदो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥3॥ |
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कृपा-पारावारः सजल-जलद-श्रेणि-रुचिरो
रमावाणीरामः स्फुरदमल-पंकेरुहमुखः।
सुरेन्द्रैराराध्यः श्रुतिगणशिखा-गीतचरितो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥4॥ |
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रथारूढो गच्छन् पथि मिलित-भूदेव पटलैः
स्तुति प्रादुर्भावं प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदयः।
दयासिन्धुर्बन्धुः सकलजगतां सिन्धुसुतया
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥5॥ |
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परंब्रह्मापीडः कुवलय-दलोत्फुल्ल-नयनो
निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि।
रसानन्दी राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥6॥ |
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न वै याचे राज्यं न च कनक-माणिक्य-विभवं
न याचेऽहं रम्यां सकल-जन-काम्यां वरवधूम्।
सदाकाले काले प्रमथपतिना गीतचरितो
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥7॥ |
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हर त्वं संसारं द्रुततरमसारं सुरपते
हर त्वं पापानां विततिमपरां यादवपते!।
अहो दीनेऽनाथे निहित-चरणो निश्चितमिदं
जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥8॥ |
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जगन्नाथाष्टकं पुण्यं यः पठेत् प्रयतः शुचि।
सर्वपाप-विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति॥9॥ |
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शब्दार्थ |
(1) भगवान् जगन्नाथ कभी-कभी, कालिंदी नदी के तटों पर समस्त कुंजो में, संगीत वादन करते हुए (बजाते हुए) और गाते हुए, संगीतात्मक मधुर ध्वनि उत्पन्न करते है। वे, ग्वालिन व्रज बालाओं के कमल सदृश मुखों के अमृत रस का आस्वादन करते हुए, महान हर्षोल्लास का अनुभव करते हुए, एक भौंरे के समान हैं। उनके चरण कमल, लक्ष्मीजी, शिवजी, ब्रह्माजी, इन्द्र एवं गणेश जी जैसे महान वयक्तियों द्वारा पूजे जाते हैं। कृपया, ब्रह्माण्ड के वे स्वामी, मुझे भी दृष्टिगोचर हो जाएँ। |
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(2) अपने बायें हाथ में वे एक बाँसुरी धारण किए रहते हैं, अपने शीश पर एक मोरपंख, और अपने कूल्हों के चारों ओर एक उत्तम सिल्क का वस्त्र। अपने नेत्रों के कोनों से, वे अपने प्रिय साथियों पर तिरछी नजरों से दृष्टिपात करते हैं। वे श्री वृन्दावन में रहते हुए जो लीलाएँ करते हैं, उन्हें वे अत्याधिक प्रिय हैं। कृपया, ब्रहाण्ड के वे स्वामी, मुझे भी दृष्टिगोचर हो जाएँ। |
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(3) महान समुद्र के तट पर एक विशाल महल है, जो स्वर्ण की कांति से चमकता है, और जिसके शिखर पर एक ऊँची मंदिर की मीनार है जो एक चमकदार नीले नीलमणि या नीलम जैसे पर्वत के समान प्रतीत होती है। उनके अन्दर वास करते हुए भगवान् जगन्नाथ, अपने महान भाई बलभद्र, और उन दोनों के मध्य उनकी बहन सुभद्रा के साथ, विभिन्न भक्ति कार्य सम्पन्न करने का, समस्त दैवी आत्माओं को, सेवाओं अवसर प्रदान करते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी मुझे भी दृष्टिगोचर हो। |
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(4) वे अहैतुकी कृपा के अथाह सागर हैं, और उनका सुन्दर वर्ण काले गहरे वर्षा के बादलों के झुंड के समान हे। वे अपनी प्रेयसी देवी लक्ष्मी द्वारा दिए गए कठोर दंड या कटु आलोचना के स्नेहपूर्ण शब्द सुनकर अत्याधिक सुख-आनन्द प्राप्त करते हैं। उनका मुख एक बेदाग (दोष रहित) पूर्ण खिले हुए कमल पुष्प के समान है। वे श्रेष्ठ देवी देवताओं एवं साधू-संतों द्वारा पूजे जाते हैं, और उनका चरित्र व उनके कार्यकलाप सर्वोच्च मूर्तिमान उपनिषदों द्वारा गीत रूप में गाकर महिमान्वित किए जाते हैं। कृपया ब्रह्माण्ड के वे स्वामी मुझे भी दृष्टिगोचर हों। |
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(5) जैसे ही भगवान् अपनी रथ यात्रा के रथ पर चढ़ते हैं और सड़क पर जुलूस के रूप में आगे बढ़ते हैं, वहाँ संत, ब्रह्मणों की विशाल सभाओं द्वारा गाए गये गीतों और जोर से की गई प्रार्थनाओं का निरंतर उच्चारण चलता रहता है। उनके स्तुति-मंत्र सुनकर, भगवान् जगन्नाथ अनुकूल रूप से उनकी ओर झुक जाऐंगें। वे दया के सागर हैं, और समस्त लोकों के सच्चे मित्र हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी, अपनी संगिनी लक्ष्मीजी सहित, जिनका जन्म अमृत के सागर से हुआ था, कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों। |
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(6) वे परब्रह्म (परम आध्यात्मिक वास्तविकता या सत्य) के शीश पर अलकृंत आभूषण हैं। उनके नेत्र नीले कमल पुष्प की कर्णिकाओं के समान हैं, और वे नीलाचल मन्दिर में वास करते हैं जो एक नीलमणि पर्वत के सदृश प्रतीत होता है। उनके चरण कमल भगवान् अनंतदेव के शीश पर रखे हुए हैं। वे दिवय प्रेममयी अमृत रसों की धारा से भाव विह्वल हैं, और वे केवल श्रीमती राधारानी के समधुर चित्तकर्षक दिवय रूप के आलिंगन द्वारा ही प्रसन्न होते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी कृपया मुझे भी दृष्टिगोचर हों। |
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(7) मैं, निश्चय ही एक राज्य प्राप्त करने के लिए प्रार्थना नहीं करता हूँ, न ही स्वर्ण, रत्न माणिक्य और धन-सम्पत्ति के लिए। मैं एक सुशील एवं सुन्दर पत्नी नहीं माँगता हूँ। जिसको पाने की सभी साधारण मनुष्य अभिलाषा करते हैं। मैं तो केवल ब्रह्माण्ड के उस स्वामी के लिए प्रार्थना करता हूँ, जिसकी महिमा भगवान् शिव द्वारा युगों-युगों से गाई जा रही है, वे कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों। |
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(8) हे देवी-देवताओं के स्वामी! कृपया शीघ्र ही इस वयर्थ, निरर्थक भौतिक अस्तित्व को दूर ले जाइये जिसमें मैं फँसा हुआ जी रहा हूँ। हे यदुओं के स्वामी! कृपया मेरे पापपूर्ण कार्यो के फलों के असीमित संग्रह को नष्ट कर दीजिए। अहो! यह निश्चित है कि भगवान् जगन्नाथ अपने चरण कमल का आशीर्वाद उन लोगों को प्रदान करते हैं जो स्वयं को विनम्र व असहाय अनुभव करते हैं। ब्रह्माण्ड के वे स्वामी कृपया मुझे दृष्टिगोचर हों। |
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(9) उस आत्मनियंत्रित एं गुणवान् व सद्गुणी वयक्ति जो भगवान् जगन्नाथ जी को महिमान्वित करने वाले इन आठ श्लोकों का गान करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है (उसके समस्त पाप धुल जाते हैं), और वह उचित रीति द्वारा स्वतः ही भगवान् विष्णु के धाम को प्राप्त करता है। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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