वैष्णव भजन  »  श्री दशावतार स्तोत्र
 
 
श्रील जयदेव गोस्वामी       
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प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदं
विहितवहित्र चरित्रमखेदम्‌
केशव! धृत-मीनशरीर! जय जगदीश हरे!॥1॥
 
 
क्षितिरिह विपुलतरे तिष्ठति तव पृष्ठे
धरणीधरणकिण-चक्रगरिष्ठे
केशव! धृत-कूर्मशरीर! जय जगदीश हरे!॥2॥
 
 
वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना
शशिनि कलङ्गकलेव निमग्ना।
केशव! धृतशूकररूप! जय जगदीश हरे!॥3॥
 
 
तव करकमलवरे नखमद्‌भुत-श्रृङ्गं
दलितहिरण्यकशिपुतनु-भृङ्गम्।
केशव! धृत-नरहरिरूप जय जगदीश हरे!॥4॥
 
 
छलयसि विक्रमणे बलिमद्‌भुतवामन
पदनखनीरजनितजनपावन।
केशव! धृत-वामनरूप! जय जगदीश हरे!॥5॥
 
 
क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापं
स्नपयसि पयसि शमितभवतापम्।
केशव! धृत-भृगुपतिरूप! जय जगदीश हरे!॥6॥
 
 
वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयं
दशमुखमौलिबलिं रमणीयम्।
केशव! धृत-रामशरीर जय जगदीश हरे!॥7॥
 
 
वहसि वपुषी विशदे वसनं जलदाभं
हलहतिभितिमिलित यमुनाभम्।
केशव! हलधररूप! जय जगदीश हरे!॥8॥
 
 
निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं
सदयहृदय! दर्शित-पशुघातम्।
केशव! धृत-बुद्धशरीर! जय जगदीश हरे!॥9॥
 
 
म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालं
धूमकेतुमिव किमपि करालम्।
केशव! धृतकल्किशरीर! जय जगदीश हरे!॥10॥
 
 
श्रीजयदेवकवेरिदमुतिदतमुदारं
श्रृणु सुखदं शुभदं भवसारम्।
केशव! धृतदशविधरूप! जय जगदीश हरे!॥11॥
 
 
श्रीदशावतार प्रणाम
वेदानुद्धरते जगन्ति वहते भूगोलमुद्विभ्रते
दैत्यं दारयते बलिं छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते।
पौलस्त्यं जयते हलं कलयते कारुण्यमातन्वते
म्लेच्छान्मूर्च्छयते दशाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः॥12॥
 
 
(1) हे केशव! हे जगदीश! हे मीन का शरीर धारण करने वाले श्री हरि! तुहारी जय हो! प्रलय के प्रचंड समुद्र के जल में डूबे हुए वेदों का उद्धार करने हेतु तुमने भीमकाय मीन का रूपधारण करके नौका-जैसा अभिनय किया।
 
 
(2) हे केशव! हे जगदीश! हे कच्छप का शरीर धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! दिवय कच्छप के रूपवाले तुम्हारे इस अवतार में तुम श्रीर समुद्र के मंथन हेतु मंदराचल को अपने विशाल पृष्ठभाग पर धारण करते हो, जिसके कारण तुम्हारे पृष्ठभाग पर गड्‌ढे जैसा बड़ा चिन्ह बन गया है।
 
 
(3) हे केशव! हे जगदीश! हे वराह का रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! जो पृथ्वी ब्रह्माण्ड के तल पर गर्भोदक सागर में डुब गई थी, वह चंद्रमा पर धब्बे के समान तुम्हारे दांत के अग्रभाग में स्थित रहती है।
 
 
(4) हे केशव! हे जगदीश! हे नृसिंह रूप धारण करनेवाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो। जैसे कोई अपने नखों के बीच भ्रमर को सरलतापूर्वक मसल देता है उसी प्रकार तुमने भी अपने सुदर हस्तकमल के अद्‌भुत नुकीले नखों द्वारा भ्रमररूप हिरण्यकशिपु के शरीर को विदीर्ण कर दिया।
 
 
(5) हे केशव! हे जगदीश! वामनरूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! हे अद्‌भुत बौने, अपने लम्बे पगों से आपने महाराज बलि को छला, तथा अपने चरणकमल के नख से उत्पन्न हुए गंगाजल से तुम इस संसार की सब जीवात्माओं को पावन करते हो।
 
 
(6) हे केशव! हे जगदीश! हे भृगुपति (परशुराम) का रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! कुरूक्षेत्र में तम अपने द्वारा हताहत किए गए आसुरी क्षत्रियों के शरीरों से उत्पन्न रक्त की नदियों से धरती को स्नान कराते हो। तुम जगत के पाप धोते हो, और तुम्हारे कारण सब लोग भौतिक अस्तित्व की दावाग्नि के ताप से मुक्ति पाते हैं।
 
 
(7) हे केशव! हे जगदीश! हे रामचंद्र का रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! लंका के युद्ध में तुम दशमुख राक्षस का वध करते हो तथा उसके सिरों को दसों दिशाओं के दिग्पालों को रमणीय व वांछनीय उपहार स्वरूप वितरण करते हो!
 
 
(8) हे केशव! हे जगदीश! हे हलधरधारी बलराम का रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! अपने उज्जवल गोरवर्ण देह पर आप सजल-जलद के समान नीलाम्बर पहनते हो। वह नीलाम्बर तुम्हारे हल के प्रहार से भयभीत हुई यमुना नदी के सुँदर गहरे रंग जैसा प्रतीत होता है।
 
 
(9) हे केशव! हे जगदीश! हे बुद्ध का शरीर धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! तुम्हारा हृदय दया से परिपूर्ण है, तुम वैदिक यज्ञ-विधि की आड़ में सम्पन्न पशुओं की हिंसा की निंदा करते हो।
 
 
(10) हे केशव! हे जगदीश! हे कल्कि रूप धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! कलियुग के अंत में दुष्ट म्लेच्छ वयक्तियों के विनाश हेतु तुम धूमकेतु के समान प्रतीत होते हुए कराल तलवार लिए रहते हो।
 
 
(11) हे केशव! हे जगदीश! हे दस प्रकार के अवतार धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! हे पाठकों, श्री जयदेव कवि द्वारा रचित इस स्तोत्र को तुम प्रेमपूर्वक सुनते रहो! यह स्तोत्र अत्युत्तम है, सुखद मंगलकारी है तथा इस अंधकारमय जगत में सर्वश्रेष्ठ है।
 
 
(12) हे दश-अवतार धारण करने वाले श्री कृष्ण! मैं तुम्हें कोटिशः नमन करता हूँ। मत्स्य रूप से तुम वेदों का उद्धार करनेवाले हो, कूर्मरूप से अपनी पीठ पर मंदराचल पर्वत धरने वाले हो, वराह रूप से पृथ्वी को अपने दातों में उठाने वाले हो, नृसिंह रूप से हिरण्यकशिपु दैत्य की छाती विदीर्ण करने वाले हो, वामन रूप से तीन पग भूमि मांगकर दैत्यराज बलि को दलकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड नापने वाले हो, परशुराम रूप से दुष्ट क्षत्रियों का संहार करने वाले हो, रामरूप से राक्षसराज रावण को जीतने वाले हो, बलराम रूप से दुष्टदलनकारी हल धारण करने वाले हो, बुद्धरूप से पीड़ित जीवों पर दया दिखने वाले हो, एवं कलियुग के अंत में कल्किरूप से म्लेच्छों को मूर्च्छित करनेवाले हो।
 
 
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