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श्री गोवर्धनवासप्रार्थनादशकम्  |
श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी |
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निजपतिभुजदण्डच्छत्रभावं प्रपद्य
प्रतिहतमदधृष्टोद्दण्डदेवेन्द्रगर्व।
अतुलपृथुलशैलश्रेणिभूप! प्रियं मे
निज-निकट-निवास देहि गोवर्धन! त्वम्॥1॥ |
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प्रमदमदनलीलाः कन्दरे कन्दरे ते
रचयति नवयूनोर्द्वन्द्वमस्मिन्नमन्दम्।
इति किल कलनार्थं लन्गकस्तद्द्वयोर्मे
निज-निकट-निवास देहि गोवर्धन! त्वम्॥2॥ |
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अनुपम-मणिवेदी-रत्नसिंहासनोर्वी-
रुहझर-दरसानुद्रोणि-संघेषु रंगैः।
सह बल-सखिभिः संखेलयन् स्वप्रियं मे
निज-निकट-निवास देहि गोवर्धन! त्वम्॥3॥ |
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रसनिधि-नवयूनोः साक्षिणीं दानकेले-
र्द्युतिपरिमलविद्धां श्यामवेदीं प्रकाश्य।
रसिकवरकुलानां मोदमास्फालयन्मे
निज-निकट-निवास देहि गोवर्धन! त्वम्॥4॥ |
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हरिदायितमपूर्व राधिका-कुण्डमात्म-
प्रियसखमिह कण्ठेनर्मणाऽऽलिंग्य गुप्तः।
नवयुवयुग-खेलास्तत्र पश्यन् रहो मे
निज-निकट-निवास देहि गोवर्धन! त्वम्॥5॥ |
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स्थल-जल-तल-शष्पैर्भूरुहच्छायया च
प्रतिपदमनुकालं हन्त संवर्धयन् गाः।
त्रिजगति निजगोत्रं सार्थकं ख्यापयन्मे
जिन-निकट-निवास देहि गोवर्धन! त्वम्॥6॥ |
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सुरपतिकृत-दीर्घद्रोहतो गोष्ठरक्षां
तव नव-गृहरूपस्यान्तरे कुर्वतैव।
अघ-बक-रिपुणोच्चैर्दत्तमान! द्रुतं में
निज-निकट-निवास देहि गोवर्धन! त्वम्॥7॥ |
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गिरिनृप! हरिदासश्रेणीवर्येति-नामा-
मृतमिदमुदितं श्रीराधिकावक्त्रचन्द्रात्।
व्रजजन-तिलकत्वे क्लृप्त! वेदैः स्फुटं मे
निज-निकट-निवास देहि गोवर्धन! त्वम्॥8॥ |
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निज-जनयुत-राधाकृष्णमैत्रीरसाक्त-
व्रजनर-पशुपक्षि ब्रात-सौख्यैकदातः।
अगणित-करुणत्वान्मामुरीकृत्य तान्तं
निज-निकट-निवास देहि गोवर्धन! त्वम्॥9॥ |
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निरुपधि-करुणेन श्रीशचीनन्दनेन
त्वयि कपटि-शठोऽपि त्वत्प्रियेणार्पिंतोऽस्मि।
इति खलु मम योग्यायोग्यतां तामगृह्नन्
निज-निकट-निवास देहि गोवर्धन! त्वम्॥10॥ |
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रसद-दशकमस्य श्रील-गोवर्धनस्य
क्षितिधर-कुलभर्तुर्यः प्रयत्नादधीते।
स सपदि सुखदेऽस्मिन् वासमासाद्य साक्षा-
च्छुभद-युगलसेवारत्नमाप्नोति तूर्णम्॥11॥ |
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शब्दार्थ |
(1) हे गोवर्धन! आप वे छाता बन गए थे जिसे भगवान् कृष्ण ने अपने हाथों में थामा या (पकड़ा था)! इस प्रकार श्रीकृष्ण ने देवताओं के राजा इन्द्र का महत्त्व घटाया था, जो अपने महान घमंड के मद में चूर था। आप समस्त विशाल पर्वतों के अतुलनीय राजा हो, कृपया मुझे अपने निकट रहने की अनुमति दीजिए। |
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(2) हे गोवर्धन! श्रीश्री राधा-कृष्ण, तरुण दिवय युगल जोड़ी, ने आपकी प्रत्येक गुफा के अंदर वैभवपूर्ण, उच्छृंखल, प्रेमपूर्ण क्रिड़ाएँ की हैं, इसलिए मैं उन्हें, वहाँ देखने के लिए बहुत अधिक उत्सुक हो गया हूँ। कृपया मुझे अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए। |
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(3) हे गोवर्धन! अत्यधिक हर्षोल्लास की स्थिति में कृष्ण, आपके अद्वितीय रत्नजड़ित मंडपों एवं सिंहासनों में, आपके वृक्षों की छाया में, आपकी गुफाओं में और घाटियों में, बलराम एवं ग्वाल बालों के साथ इकट्ठे खेलते हैं। कृपया मुझे अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए। |
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(4) हे गोवर्धन! आप राधा और कृष्ण की दान-क्रिड़ा (जिसमें कृष्ण गोपियों से, अनके सिर पर रख कर ले जा रही घी के बदले में कर वसूल करते हैं। ) के साक्षी हो जो मधुर अमृत रसों का सागर है। आप वैभव एवं सुगन्ध से पूर्ण नील वर्ण के धरातल का प्रदर्शन करके, भक्तों के अमृत रसों की प्रसन्नता में वृद्धि कर देते हो। कृपया मुझे अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए। |
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(5) हे गोवर्धन! आप अपने प्रिय मित्र श्रीराधाकुण्ड का स्नेहपूर्वक एवं गोपनीय रूप से आलिंगन करते हो, वह स्थान जो आपको और भगवान् हरि को अत्यन्त प्रिय है। कृपया मुझे अने समीप रहने की अनुमति दीजिए और वहाँ की तरुण दिवय युगल जोड़ी की घनिष्ट लीलाओं का दर्शन करवाइये। |
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(6) हे गोवर्धन! आप गायों को भूमि, जल, घास और अपने वृक्षों की छाया सफलतापूर्वक निरन्तर देकर, अपना नाम गोवर्धन, गौओं के सरंक्षक व पालनकर्ता, सार्थक करते हो। कृपया मुझे अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए। |
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(7) हे गोवर्धन! अघासुर और बकासुर के शत्रु, श्रीकृष्ण द्वारा आपकी महिमा एवं यश में वृद्धि हो जाती है, जब उन्होंने वर्षा से ब्रजवासियों की रक्षा की थी और शीघ्रतापूर्वक अपना नया आश्रय के रूप में प्रयोग करके इन्द्र को पराजित किया था। कृपया मुझे अपने निकट रहने की अनुमति दीजिए! |
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(8) हे गोवर्धन! पर्वतों के राजा! चूँकि, हरि के श्रेष्ठ, सबसे अच्छे सेवक के रूप में आपके नाम का अमृत रस, श्रीमती राधारानी के मोती सदृश मुख से निस्सारित (उत्पन्न) हुआ है, जैसा कि वैदिक शास्त्र श्रीमद्भागवतम् (10.21.18) द्वारा भी प्रदर्शित हुआ है, आप व्रज के नवीन या नए तिलक कहलाते हो। कृपया मुझे अपने समीप वास करने की अनुमति दीजिए। |
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(9) हे गोवर्धन! श्रीश्रीराधाकृष्ण एवं उनके पार्षदों को, केवल आप ही प्रसन्नता प्रदान करने वाले हो, जो सदा मैत्री भाव में व्रज के लोगों, पशुओं व पक्षियों से घिरे रहते हैं। कृपया दया करके मुझे स्वीकार कीजिए और अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए। |
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(10) हे गोवर्धन! यद्यपि मैं नीच व धोखेबाज हूँ, फिर भी अहैतुकी दया से पूर्ण श्री शचीनन्दन ने मुझको तुम्हें समर्पित कर दिया है। इसलिए यह मत विचार करो कि मैं योग्य हूँ या अयोग्य और मुझे स्वीकार कीजिए। कृपया मुझे अपने समीप रहने की अनुमति दीजिए। |
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(11) कोई भी जो, दिवय रसों को प्रदान करने वाले, पर्वतों के राजा श्रीगोवर्धन की इन दस श्लोको का पाठ करके ध्यानपूर्वक, प्रशंसा करता है, वह शीघ्रता से गोवर्धन के समीप वास करने के स्थान को प्राप्त कर लेगा, गोवर्धन जो प्रसन्नता प्रदान करने वाले हैं, और वह श्रीश्रीराधा-कृष्ण की दिवय युगल जोड़ी की शुभ, मंगलमय प्रेमपूर्ण सेवा रूपी बहुमुल्य रत्न को प्राप्त करेगा। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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