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कबे मुइ वैष्णव चिनिब  |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर |
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कबे मुइ वैष्णव चिनिब हरि हरि।
वैष्णव चरण, कल्याणेर खनि,
मातिब हृदय धरि’॥1॥ |
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वैष्णव-ठाकुर, अप्राकृत सदा,
निर्दोष आनन्दमय।
कृष्णनामे प्रीति, जड़े उदासिन,
जीवेते दयार्द्र हय॥2॥ |
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अभिमान हीन, भजने प्रवीण,
विषयेते अनासक्त।
अन्तर-बाहिरे, निष्कपट सदा,
नित्य-लीला-अनुरक्त॥3॥ |
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कनिष्ठ, मध्यम, उत्तम प्रभेदे,
वैष्णव त्रिविध गणि।
कनिष्ठे आदर, मध्यमे प्रणति,
उत्तमे शुश्रूषा शुनि॥4॥ |
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ये जेन वैष्णव, चिनिया लइया,
आदर करिबे यबे।
वैष्णवेर कृपा, याबे सर्व सिद्धि,
अवश्य पाइब तबे॥5॥ |
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वैष्णव चरित्र, सर्वदा पवित्र,
येइ निन्दे हिंसा करि।
भकतिविनोद, ना सम्भाषे तारे,
थाके सदा मौन धरि’॥6॥ |
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शब्दार्थ |
(1) हे हरि! कब मैं वैष्णवों को पहचानूँगा? वैष्णवों के चरणकमल समस्त प्रकार के शुभों के उद्गम स्थान हैं। अतएव, उन्हें मैं अपने हृदय में स्थापित कर, मदोन्मत हो जाऊँगा। |
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(2) महान् वैष्णव सदैव दिवय, निर्दोष, तथा आनन्दमय हैं। वे भौतिक जगत् के प्रति उदासीन रहते हैं परन्तु जीवमात्र पर दयालु होते हैं। |
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(3) वैष्णव मिथ्या अहंकार विहीन, भक्तिमय सेवा का प्रतिपादन करने में अत्यन्त दक्ष, एवं समस्त प्रकार के भौतिक भोगविलास से नितांत अनासक्त रहते हैं। वे आंतरिक तथा बाह्य आदान-प्रदान में सदा निष्कपट होकर सदा भगवान् की नित्य लीलाओं में अनुरक्त रहते हैं। |
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(4) योग्यतानुसार तीन प्रकार के वैष्णव होते हैं, कनिष्ठ अधिकारी, मध्यम अधिकारी तथा उत्तम अधकारी। मैंने सुना है कि कनिष्ठ अधिकारी वैष्णवों के प्रति आदर-सम्मान, मध्यम अधिकारी वैष्णवों को प्रणाम, तथा उत्तम अधिकारी वैष्णवों की सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए। |
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(5) कब मैं वैष्णवों के स्तर को समझकर उन्हें उचित सम्मान देने में सक्षम हो पाऊँगा? उस समय, निश्चय ही मैं वैष्णव कृपा प्राप्त कर सकूँगा, जो कि सर्वसिद्धिप्रदायिनी है। |
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(6) वैष्णवों का चरित्र सर्वदा विमल हैं। उनके निन्दकों से मुझे घृणा है। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं कि वे ऐसे वयक्ति से वार्तालाप ही नहीं करते एवं उसकी उपस्थिति में मौन धारण करते हैं। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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