वैष्णव भजन  »  दुर्लभ मानव जनम
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर       
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दुर्लभ मानव-जनम लभिया संसारे।
कृष्ण ना भजिनु,-दुःख कहिब काहारे?॥1॥
 
 
‘संसार’ ‘संसार’, करे मिछे गेल काल।
लाभ ना हइल किछु, घटिल जंजाल॥2॥
 
 
किसेर संसार एइ छायाबाजी पाय।
इहाते ममता करि’वृथा दिन जाय॥3॥
 
 
ए-देह पतन ह’ले कि रबे आमार?
केह सुख नाहि दिबे पुत्र-परिवार॥4॥
 
 
गर्दभेर मत आमि करि परिश्रम।
का’र लागि’एत करि, ना घुचिल भ्रम॥5॥
 
 
दिन याय मिछा काजे, निशा निद्रा-वशे।
नाहि भावी-मरण निकटे आछे ब’से॥6॥
 
 
भाल मन्द खाइ, हेरि, परि, चिन्ता-हीन।
नाहि भावि, ए-देह छाड़िब कोन दिन॥7॥
 
 
देह-गेह-कलत्रादि - चिन्ता अविरत।
जागिछे हृदये मोर बुद्धि करि’हत॥8॥
 
 
हाय, हाय! नाहि भावी, अनित्य ए-सब।
जीवन विगते कोथा रहिबे वैभव?॥9॥
 
 
स्मशाने शरीर मम पड़िया रहिबे।
विहंग-पतंग ताय विहार करिबे॥10॥
 
 
कुक्कुर शृगाल सब आनन्दित हये।
महोत्सव करिबे आमार देह लये॥11॥
 
 
ये देहरे एइ गति, तार अनुगत।
संसार-वैभव आर बन्धु-जन यत॥12॥
 
 
अतएव माया-मोह छाड़ि’ बुद्धिमान।
नित्यतत्त्व कृष्णभक्ति करुन सन्धान॥13॥
 
 
(1) दुर्लभ मानव जीवन प्राप्त करने के बाद भी मैंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण की आराधना नहीं की। मैं इस दुःखद कथा को किससे कहूँ?
 
 
(2) मैंने अपना समय सांसारिक कार्यकलापों में वयर्थ ही गँवा दिया तथा किन्चित्‌ भी लाभ प्राप्त नहीं किया। वास्तव में, मैं भौतिक जंजाल में अधिकाधिक फँसता चला गया।
 
 
(3) यह भौतिक जगत्‌ ऐन्द्रजालिक है। इस भ्रम से आसक्त होने के कारण, मैं वयर्थ ही अपना समय गवाँ रहा हूँ।
 
 
(4) जब मेरा यह शरीर समाप्त हो जाएगा, तब मेरा स्वयं का शेष ही क्या रह जाएगा? मेरे पुत्र तथा पत्नी समेत कोई मुझे सुख देने में सक्षम नहीं रहेगा।
 
 
(5) मैं गधे के समान परिश्रम कर रहा हूँ, हालाँकि मुझे ज्ञात नहीं है कि मैं किसलिए इतना परिश्रम कर रहा हूँ। लेकिन, फिर भी मेरा भ्रम दूर नहीं हुआ।
 
 
(6) मेरे दिन वयर्थ के कार्यकलापों में वयतीत होते हैं तथा मेरी रात्रि निद्रा में वयतीत होती है। तब भी मुझे इस बात का आभास नहीं है कि मृत्यु ठीक मेरे साथ ही बैठी है।
 
 
(7) मैं स्वादिष्ट भोजन ग्रहण करता हूँ, मनोहर वस्तुओं को देखता हूँ तथा मैं आकर्षक कपड़े पहनता हूँ। इस प्रकार, मैं निश्चिंत रहता हूँ। मैं कदापि विचार नहीं करता कि किसी भी समय मुझे यह शरीर छोड़ना पड़ सकता है।
 
 
(8) पत्नी, बच्चे, घर आदि के विचार निरंतर मेरे हृदय में आ रहे हैं तथा मेरी बुद्धि का दमन कर रहे हैं।
 
 
(9) हाय! हाय! मैं इन वस्तुओं को अनित्य नहीं समझ रहा। जब यह शरीर समाप्त हो जायेगा, तो मेरा वैभव कहाँ रह जायेगा?
 
 
(10) मेरा शरीर श्मशान में पड़ा होगा तथा पक्षी एवं कीड़े-मकोड़े उसका भक्षण कर आनन्द प्राप्त कर सकेंगे।
 
 
(11) कुत्ते तथा सियार आनन्दपूर्वक मेरे शरीर का भक्षण कर महोत्सव मनाएँगे।
 
 
(12) भौतिक शरीर की यही गति है। सांसारिक वैभव तथा मित्र इस शरीर से ही सम्बन्धित है।
 
 
(13) यह सब समझने के पश्चात्‌, बुद्धिमान वयक्तियों को चाहिए कि वे इस शरीर से अपनी भ्रामक आसक्ति को त्याग दें तथा भगवान्‌ कृष्ण की भक्ति में रत होकर शाश्वत सत्य की खोज करें।
 
 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
 
 
 
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