वैष्णव भजन  »  आत्म-निवेदन
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर       
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आत्म-निवेदन, तुया पदे करि’,
हइनु परम सुखी।
दुःख दूरे गेल, चिन्ता ना रहिल,
चौदिके आनन्द देखि॥1॥
 
 
अशोक-अभय, अमृत-आधार,
तोमार चरण-द्वय।
ताहाते एखन, विश्राम लभिया,
छाड़िनु भवेर भय॥2॥
 
 
तोमार संसारे करिब सेवन,
नहिब फलेर भागी।
तव सुख याहे, करिब यतन,
ह’ये पदे अनुरागी॥3॥
 
 
तोमार सेवाय, दुःख हय यत,
सेओ त’ परम सुख!
सेवा-सुख-दुःख, परम सम्पद,
नाशये अविद्या-दुःख॥4॥
 
 
पूर्व इतिहास, भुलिनु सकल,
सेवा-सुख-पेये मने।
आमि त’तेोमार तुमि त’ आमार,
कि काज अपर धने॥5॥
 
 
भकतिविनोद, आनन्दे डुबिया,
तोमार सेवार तरे।
सब चेष्टा करे, तव इच्छा-मत,
थाकिया तोमार घरे॥6॥
 
 
(1) आपके चरणकमलों में अपने को पूर्णतया शरणागत करके, मैं सुखी हो गया हूँ। अब मेरा भौतिक क्लेश दूर हो चुका है, अतः मैं समस्त वयाकुलताओं से मुक्त हूँ। चारों दिशाओं में जहाँ भी मैं देखता हूँ, मुझे प्रसन्नता ही प्रसन्नता दिखाई देती है।
 
 
(2) आपके यह दो चरणकमल शोक तथा भय से मुक्ति दिलाते हैं। ये दिवय अमृत के कुण्ड हैं। मैंने उन चरणकमलों की शरण ग्रहण कर ली है तथा भौतिक जीवन के समस्त भय को छोड़ दिया है।
 
 
(3) मैं एकमात्र आपकी सेवा में वयस्त रहूँगा तथा बदले में कभी भी कुछ नहीं माँगूंगा। आपके चरणकमलों से अनुराग रखते हुए, मैं आपको सुख देने का अपनी ओर से श्रेष्ठतम प्रयास करूँगा।
 
 
(4) आपकी सेवा सम्पादन करते हुए जो कुछ भी कठिनाइयाँ मुझे मिलेंगी, वे वास्तव में महान्‌ आनन्द का कारण होंगी। आपकी सेवा में वचनबद्धता के दौरान जो भी सुख तथा दुख मिलता है, वह महान्‌ संपत्ति है। वास्तव में ऐसे सुख एवं दुख अज्ञानजनित क्लेशों को नष्ट कर देते हैं।
 
 
(5) आपकी सेवा में आने वाले आनन्द का अनुभव करने के पश्चात्‌ मैं अपना पूर्व इतिहास (जीवन) भूल गया हूँ। मैं आपका दास हूँ तथा आप मेरे स्वामी हैं। किसी दूसरी संपत्ति की लालसा रखने से क्या लाभ?
 
 
(6) आपकी सेवा में तत्पर रहते हुए, श्रील भक्तिविनोद ठाकुर आनन्द रूपी समुद्र में डूब रहे हैं। आपकी प्रसन्नता हेतु, वे आपके परिवार में रह रहे हैं एवं सब प्रकार से आपकी सेवा में वयस्त हैं।
 
 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
 
 
 
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