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शचीर आंगिनाय नाचे  |
श्रील वासुदेव घोष |
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शचीर आंगिनाय नाचे विश्वम्भर राय।
हासि हासि फिरी फिरी मायेरे लुकाय॥1॥ |
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बयने वसन दिया बले लुकाइनु।
शची बले विश्वम्भर आमि ना देखिनु॥2॥ |
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मायेर आंचल धरी चंचल चरणे।
नाचिया नाचिया जाय खञ्जन गमने॥3॥ |
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वासुदेव घोष कहे अपरूप शोभा।
शिशुरूप देखि हय जगमन लोभा॥4॥ |
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शब्दार्थ |
(1) शची माता के अंगण में छोटे से बालक विश्वंभर (श्रीचैतन्य महाप्रभु) नाच रहे हैं। हँसते-हँसते इधर-उधर घुमकर मां के पिछे छुपकर खेल रहे हैं। |
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(2) शची माता ने उनका मुख अपने साड़ी से ढक दिया हैं। विश्वंभर कहते है, मैं अभी छुप गया हूँ। तब शची माता कहती है, हाँ, मैंने तुम्हें देखा! |
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(3) मां को साड़ी का आंचल पकड़कर बालक विश्वभंर नृत्य करते समय शचीमाता ने उन्हें धीरे से अपनी गोद में उठा लिया। |
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(4) इस लीला को देखते हुए श्रील वासुदेव घोष कह रहे हैं, इस शिशु को देखकर मैं पूर्णरूप से मंत्रमुग्ध हो गया हूँ। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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