|
|
|
अवतार सार  |
श्रील लोचनदास ठाकुर |
भाषा: हिन्दी | English | தமிழ் | ಕನ್ನಡ | മലയാളം | తెలుగు | ગુજરાતી | বাংলা | ଓଡ଼ିଆ | ਗੁਰਮੁਖੀ | |
|
|
अवतार सार, गोरा अवतार,
केन ना भजिलि ताँरे।
करि’नीरे वास, गेल ना पियास,
आपन करम फेरे॥1॥ |
|
|
कन्टकेर तरु, सदाइ सेविलि (मन),
अमृत पाइवार आशे।
प्रेम कल्पतरु, श्रीगौराङ्ग आमार,
ताहारे भाविलि विषे॥2॥ |
|
|
सौरभेर आशे, पलाश शुँकिलि (मन),
नाशाते पशिल कीट।
‘इक्षुदण्ड’ भावि, काठ चुषिलि (मन),
केमने पाइबि मिठ॥3॥ |
|
|
‘हार’ बलिया, गलाय परिलि (मन),
शमन किंकर साप।
‘शीतल’ बलिया, आगुन पोहालि (मन),
पाइलि वजर ताप॥4॥ |
|
|
संसार भजिलि, श्रीगौराङ्ग भुलिलि,
ना शुनिलि साधुर कथा।
इह परकाल, दुकाल खोयालि (मन),
खाइलि आपन माथा॥5॥ |
|
|
शब्दार्थ |
(1) अरे मन! तुने समस्त अवतारों के शिरोमणि श्रीगौरसुन्दर का भजन क्यों नहीं किया? जल में निवास करते हुए भी तेरी प्यास दूर नहीं हुई, तो इसमें तेरे ही कर्मोंका दोष है क्योंकि ... |
|
|
(2) तू तो सर्वदा अमृत सदृश सुमिष्ट फल की प्राप्ति की आशा से काँटेदार वृक्ष की सेवा करता रहा। परन्तु प्रेम के कल्पवृक्षस्वरूप हमारे श्रीगौरसुन्दर को विष सदृश जानकर उनका परित्याग कर दिया। |
|
|
(3) अरे मन! सुगन्ध प्राप्ति की आशा से तूने कीड़ों से भरे हुए पलास पुष्प को सूँघा जिसके फलस्वरूप वे सब कीड़े तेरी ना में घुस गए तथा ईख जानकर एक सूखी सी लकड़ी को चूसा। |
|
|
(4) तू स्वयं विचार कर कि तूझे सुमिष्ट रस कैसे मिलेगा? यमदूत रूपी सर्पों को (मृत्यु को) सुन्दर हार समझकर अपने गले में लपेट लिया, दहकती हुई आग को शीतल जानकर तू उसमं प्रवेश कर गया और असह्ययकष्ट से बिल-बिलाने लगा। |
|
|
(5) अरे मन! तूने जीवन में कभी साधु की बात तो मानी नहीं तथा श्रीगौरसुन्दर को भूलकर संसार का भजन किया। इस प्रकार तूने अपना यह लोक और परलोग दोनों का ही नष्ट कर दिया। |
|
|
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
|
|
|