वैष्णव भजन  »  वृंदावनवासी यत
 
 
श्रील देवकीनन्दन दास       
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वृंदावनवासी यत वैष्णवेर गण।
प्रथमे वंदना करि सबार चरण॥1॥
 
 
नीलाचलवासी यत महाप्रभुर गण।
भूमिते पड़िया वन्दो सभार चरण॥2॥
 
 
नवद्वीपवासी यत महाप्रभुर भक्त।
सभार चरण वन्दों हञा अनुरक्त॥3॥
 
 
महाप्रभुर भक्त यत गौड़ देशे स्थिति।
सभार चरण वन्दों करिया प्रणति॥4॥
 
 
ये-देशे, ये देशे वैसे गौरांगेर गण।
ऊर्ध्वबाहु करि’ वन्दों सबार चरण॥5॥
 
 
हञाछेन हइबेन प्रभुर यत दास।
सभार चरण वन्दो दन्ते करि घास॥6॥
 
 
ब्रह्माण्ड तारिते शक्ति धरे जने-जने।
ए वेद-पुराणे गुण गाय येबा शुने॥7॥
 
 
महाप्रभुर गण सब पतितपावन।
ताइ लोभे मुञि पापी लइनु शरण॥8॥
 
 
वन्दना करिते मुञि कत शक्ति धरि।
तमो-बुद्धिदोषे मुञि दम्भ मात्र करि॥9॥
 
 
तथापि मूकेर भाग्य मनेर उल्लास।
दोष क्षमि’ मो-अधमे कर निज दास॥10॥
 
 
सर्ववांच्छासिद्धि हय, यमबंध छूटे।
जगते दुर्लभ हञा प्रेमधन लूटे॥11॥
 
 
मनेर वासना पूर्ण अचिराते हय।
देवकीनन्दन दास एइ लोभे कय॥12॥
 
 
(1) वृन्दावनवासी जितने भी वैष्णव हैं, सर्वप्रथम मैं उनके चरणो की वन्दना करता हूँ।
 
 
(2) नीलाचलवासी जितने भी महाप्रभु के गण हैं, पृथ्वी पर लेटकर मैं सबके चरणों की वन्दना करता हूँ।
 
 
(3) नवद्वीपवासी जितने भी महाप्रभु के भक्त हैं, दण्डवत्‌ प्रणाम करता हुआ सभी के चरणों की मैं वन्दना करता हूँ।
 
 
(4) गौड़ देश वासी महाप्रभु के जितने भी भक्त हैं, सभी के चरणों में शरणागत होकर मैं उनकी वन्दना करता हूँ।
 
 
(5) इसके अलावा जिस-जिस स्थान पर भी गौरांग महाप्रभु जी के गण हैं, अपने दोनों हाथ उठाकर मैं उनके चरणों की वन्दना करता हूँ।
 
 
(6) भगवान्‌ के जितने भी भक्त हो चुके हैं या होंगे, मैं दान्तों में घास का तिनका लेकर अर्थात्‌ दीनता के साथ सभी के चरणों की वन्दना करता हूँ।
 
 
(7) एक-एक भक्त पूरे के पूरे ब्रह्माण्ड को उद्धार करने की सामर्थ्य रखता है - ऐसा सुना जाता हे कि वेद व पुराण इनका इस प्रकार से बखान करते हैं।
 
 
(8) श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के सभी भक्त पतितों को पावन करने वाले हैं, इसी लोभ से मुझ जैसे पापी ने भी उनकी शरण ग्रहण की है।
 
 
(9) वन्दना करने की मैं भला कितनी शक्ति रखता हूँ। तमोगुणी बुद्धि के इस दोष के कारण मैं तो वैष्णवों की वन्दना करने का मात्र दम्भ ही करता हूँ।
 
 
(10) तब भी इस गूँगे के ये सुन्दर भाग्य हैं कि इसके मन में उल्लास है। आप कृपा करके मेरे दोषों को क्षमा करके इस अधम को अपना दास बना लीजिये।
 
 
(11) आपका दासत्त्व मिल जाने से, जितनी भी इच्छायें हैं, सब पूर्ण हो जाती है। यमराज जी का बन्धन छूट जाता है तथा इस जगत्‌ में जो दुर्लभ वस्तु है- ‘प्रेमधन’ वह उसे लूटता रहता है।
 
 
(12) मन की वासना बहुत जल्दी पूर्ण हो जाती है। देवकीनन्दन दास कहते हैं कि मैं इसी लोभ से वैष्णव महिमा कहता हूँ।
 
 
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