वैष्णव भजन  »  अनादि-करम-फले
 
 
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर       
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अनादि-करम-फले, पड़ि भवार्णव जले,
तरिबारे ना देखि उपाय।
ए विषय-हलाहले दिवा-निशि हिया ज्वले,
मन कभु सुख नाहि पाय॥1॥
 
 
आशा-पाश-शत-शत, क्लेश देय अविरत
प्रवृत्ति-उर्मिर ताहे खेला।
काम-क्रोध-आदि छय, वाटपाडे देय भय,
अवसान हैल आसि वेला॥2॥
 
 
ज्ञान-कर्म-ठग दुइ, मोरे प्रतारिया लइ,
अवशेषे फेले सिन्धू जले।
ए-हेन समये बन्धु तुमि कृष्ण कृपा-सिन्धु,
कृपा करि तोल मोरे बले॥3॥
 
 
पतित-किन्करे धरि’, पाद-पद्‌म-धूलि करि’
देह भकतिविनोद आश्रय।
आमि तव नित्यदास, भूलिया मायार पाश,
बद्ध हये आछि दयामय॥4॥
 
 
(1) हे नाथ! आनादि काल से एकत्रित हुए मेरे कर्मों के फल के कारण, मैं भौतिक भवसागर में गिर गया हूँ। इस भवसागर को पार करने का मुझे कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। मेरी देह, भौतिक विषय भोग के विषैले प्रभाव के कारण, दिन-रात जल रही है। फलस्वरूप, मेरा मन कभी भी सुख-शांति नहीं प्राप्त कर पाता।
 
 
(2) सहस्रों रस्सियाँ मेरी गर्दन के चारों ओर बँधी हैं, मुझे हर समय कष्ट देने के लिए। उस भौतिक भवसागर में भौतिक इच्छाओं की लहरें उपद्रव मचा रही हैं। मैं काम, क्रोध इत्यादि छ’ शत्रुओं से भयभीत हूँ। इस प्रकार, मेरे जीवन का अन्त हो रहा है।
 
 
(3) दो ठग, ज्ञान और कर्म, मुझे दुख-क्लेशों के सागर में डाल कर, सदा मुझे पथभ्रष्ट कर रहे हैं। हे मेरे प्रिय मित्र कृष्ण, आप तो दया के सागर, कृपा सिन्धु हो। कृपा करके अपने बल द्वारा मुझे इस दयनीय स्थिति से उठा कर निकालो और मेरी रक्षा करो।
 
 
(4) हे अत्यन्त दयालु भगवान्‌! कृपया इस पतित दास को उठाइये और अपने चरण कमलों की धूल का एक कण बना दीजिए। इस प्रकार से, कृपया श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को आश्रय दीजिए। मैं आपका नित्य दास हूँ। आपको भूल जाने के फलस्वरूप, मैं माया की रसिस्यों द्वारा इस भौतिक जगत्‌ में बँध कर फँस गया हूँ।
 
 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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