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केशव तुया जगत विचित्र  |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर |
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केशव! तुया जगत विचित्र
करम – विपाके, भव – वन भ्रमइ,
पेखलुँ रंग बहु चित्र॥1॥ |
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तुया पद – विस्मृति, आ – मर जंत्रना,
क्लेश – दहने दोहि’ जार्इ
कपिल, पतञ्जलि, गौतम, कनभोजी,
जैमिनि, बौद्ध आओवे धाइ’॥2॥ |
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तब् कोइ निज – मते, भुक्ति, मुक्ति याचत,
पातर्इ नाना – विध फाँद
सो – सबु – वाञ्चक, तुआ भक्ति बहिर्मुख,
घटाओवे विषम प्रमाद॥3॥ |
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बैमुख – वञ्चने, भट सो – सबु,
निर्मिल विविध पसार
दंडवत् दूरत, भक्तिविनोद भेल,
भक्त – चरण करि’ सार॥4॥ |
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शब्दार्थ |
(1) हे केशव! आपका यह जगत् अत्यन्त विचित्र है। अपने स्वार्थी कार्यों के परिणाम स्वरूप मैंने इस ब्रह्माण्ड रूपी वन का भ्रमण किया है और अनेक चित्र-विचित्र वस्तुएँ देखी हैं। |
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(2) आपके चरणों की विस्मृति मृत्यु की कटु यातना तक ले जाती है और मेरे हृदय को नाना क्लेशों से जलाती है। इस निसहाय अवस्था में मेरे तथाकथित रक्षक जैसे महान् दार्शनिक कपिल, गौतम, कनाड, जैमिनी और बुद्ध मेरी रक्षा के लिए दौड़े आये हैं। |
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(3) सभी ने निज मत दिये हैं और अपने दार्शनिक फँदे में भोगों और मुक्ति रूपी भोजन लटकाया है। किन्तु ये सब व्यर्थ के धोखेबाज हैं क्योंकि ये आपकी भक्ति से विमुख हैं और इसलिए ये सभी खतरनाक हैं। |
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(4) इनमें से प्रत्येक कर्म, ज्ञान, योग एवं तप में परांगत है और आपसे विमुख आत्माओं को धोखा देते हुए ये विभिन्न प्रलोभनों का निर्माण करते हैं। इन धोखेबाजों को दूर से ही प्रणाम करके भक्तिविनोद आपके चरणकमलों को अपने जीवन के साररूप में स्वीकार करते हैं। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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