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उदिल अरूण  |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर |
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उदिल अरुण पूरब भागे
द्विज-मणि गेारा अमनि जागे।
भकत-समूह लइया साथे
गेला नगर-ब्राजे॥1॥ |
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‘ताथइ-ताथइ’ बाजल खोल,
घन-घन ताहे झाँजेर रोल।
प्रेमे ढलऽढलऽ सोनार अंङ्ग
चरणे नूपुर बाजे॥2॥ |
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मुकुन्द माधव यादव हरि,
बलेन बल रे वदन भरि।
मिछे निद-वशे गेल रे राति,
दिवस शरीर-साजे॥3॥ |
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एमन दुर्लभ मानव-देह
पाइया किकर, भावना केह।
एबे ना भजिले यशोदा-सुत
चरमे पड़िबे लाजे॥4॥ |
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उदित तपन हइल अस्त,
दिन गेल बलि’ हइबे वयस्त।
तबे केन एबे अलस हइ’
ना भज हृदयराजे॥5॥ |
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जीवन अनित्य जानह सार
ताहे नाना-विध विपद-भार।
नामाश्रय करि’ यतने तुमि,
थाकह आपन काजे॥6॥ |
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जीवेर कल्याण-साधन-काम
जगते आसि’ ए मधुर नाम।
अविद्या-तिमिर-तपनरूपे,
हृद-गगने विराजे॥7॥ |
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कृष्ण नाम-सुधा करिया पान,
जुड़ाओ भकतिविनोद-प्राण।
नाम बिना किछु नाहिक आर,
चौदाभुवन-माझे॥8॥ |
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शब्दार्थ |
(1) जैसे ही पूर्व दिशा में अरुणोदय हो गया। उसी क्षण ब्राह्मणों में श्रेष्ठ द्विजमणि गौरांग महाप्रभु जाग गये। वे अपने भक्तों के समूह को साथ लेकर, नदिया में, सारे नगरों व गाँवों में संकीर्तन के लिए चल पड़े। |
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(2) कीर्तन में, “ताथइ-ताथइ” की मधुर ध्वनि से मृदंग एवं उसी की ताल से ताल मिलाकर झाँझर-मंजीरे इत्यादि वाद्य बजने लगे। जिससे प्रेम में अविष्ट होकर श्री गौरांग महाप्रभु का पिघले हुए सोने के रंग जैसा श्रीअंग ढल-ढल करने लगा अर्थात् वे नृत्य करने लगे तथा नृत्य करते हुए उनके श्री चरणों के नूपुर बजने लगे। |
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(3) चैतन्य महाप्रभु ने लोगों को पुकार कर कहा, “अरे भाइयों! आप लोगों ने रात तो सोते-सोते एवं दिन को शरीर के श्रृंगार में वयर्थ ही वयतीत कर दिया, परन्तु भगवान का भजन नहीं किया। अतः मुकुन्द, माधव, यादव, हरि इत्यादि भगवन्नामों का उच्च स्वर से कीर्तन करो। ” |
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(4) तुमने ऐसा दुर्लभ मानव शरीर प्राप्त किया है, और फिर भी तुम इस उपहार का महत्त्व नहीं समझते हो। तुम अपने अमूल्य मानव जीवन का क्या कर रहे हो? अब भी यदि तुमने यशोदानन्दन श्रीकृष्ण की आराधना या भजन नहीं किया तो मृत्यु के समय, घोर कष्ट व पीड़ा तुम्हारी प्रतीक्षा करेगी। तुम्हारे लिए यह बहुत लज्जा की बात है। |
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(5) “सूर्य के उगने तथा अस्त होने के साथ तुम्हारा दिन वयर्थ की वयस्तता में बीता जा रहा है। तब तुम आलसी बने क्यों पड़े हो? अपने हृदय के राजा को क्यों नहीं भजते, उनकी सेवा क्यों नहीं करते?” |
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(6) निश्चित रूप से इतना जान लो कि एक तो यह जीवन अनित्य है तथा उस पर भी इस मानव जीवन में नाना प्रकार की विपदाएँ हैं। अतः तुम यत्नपूर्वक भगवान् के पवित्र नाम का आश्रय ग्रहण करो तथा केवल जीवन निर्वाह के निमित अपना नियत कर्म या सांसारिक वयवहार करो। |
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(7) जीवों का कल्याण करने के लिए ही यह सुमधुर नाम जगत में प्रकट हुआ है जो अज्ञानरुपी अंधकार से परिपूर्ण हृदयरूपी आकाश में सूर्य की भाँति उदित होकर, सारे अज्ञान को दूर कर प्रेमाभक्ति को प्रकाशित कर देता है। |
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(8) श्रीभक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं- आप लोग कृष्ण नाम रुपी अमृत का पान करें जिससे कि मुझे सान्त्वना प्राप्त हो। इन चौदा भुवनों में श्रीहरि के नाम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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