वैष्णव भजन  »  कुसुमित वृंदावने, नाचतो शिखिगणे
 
 
श्रील नरोत्तमदास ठाकुर       
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कुसुमित वृंदावने, नाचतो शिखिगणे,
पिक – कुल भ्रमर – झङ्कारे
प्रिय सहचरी संगे, गाइया जाइबो रंगे,
मनोहर निकुंज – कुटीरे॥1॥
 
 
हरि हरि! मनोरथ फलिबे आमारे
दुँहुक मंथर गति, कौतुके हेरबो अति,
अंग भरि पुलक अंकुरे॥2॥
 
 
चौदिगे सखीर माझे, राधिकार इंगिते,
चिरुणी लइया करे कोरि
कुटिल कुंतल सब, बिथारिया आंचडिबो,
बनाइबो विचित्र कबरी॥3॥
 
 
मृगमद, मलयज, सब अंगे लेपिबो,
पराइबो मनोहर हार
चंदन कुंकुमे, तिलक बसाइबो,
हेरबो मुख – सुधाकर॥4॥
 
 
नील पट्टांबर, जतने पराइबो,
पाये दिबो रतन मंजीरे
भृंगारेर जले रांगा, चरण धोयाइबो,
मुछबो आपन चिकुरे॥5॥
 
 
कुसुमक नव – दले, शेज बिछाइबो,
शयन कराबो दोंहाकारे
धवल चामर आनि, मृदु मृदु बीजबो,
छरमित दुँहुक शरीरे॥6॥
 
 
कनक संपुट कोरि, कर्पूर तांबुल भरि,
जोगाइबो दोंहार वदने
अधर सुधा – रसे, तांबुल सुवासे,
भुंजबो अधिक जतने॥7॥
 
 
श्रीगुरु करुणासिन्धु, लोकनाथ दीन – बंधु,
मुइ दीने कर अवधान
राधाकृष्ण वृंदावन, प्रिय – नर्म – सखीगण,
नरोत्तम मागे एइ दान॥8॥
 
 
(1) श्री वृन्दावन में, खिले हुए पुष्पों, नृत्य करते मयूरों, भ्रमरों की झंकार तथा पक्षियों के कलरव के मध्य मैं अपनी प्रिय सहचरियों के संग गायन करती हुई वन में स्थित मनोहर निकुञ्ज-कुटीर में जाऊँगी।
 
 
(2) हे भगवान्‌ हरि! मेरा यह मनोरथ कब पूर्ण होगा जब श्रीश्री राधा-कृष्ण की सुन्दर भाव-भंगिमाओं को मैं कौतुक हो निहारूँगी एवं मेरे अंग पुलकित हो उठेंगे।
 
 
(3) निज सखियों से घिरी श्री राधिका जब इंगित करेंगी तब मैं अपने हाथ में कंघी लेकर सावधानीपूर्वक उनके घुँघराले केशों को विचित्र रीति से सँवारूँगी।
 
 
(4) मैं उनके श्री अंगों को चन्दन एवं कस्तूरी से लेपित करूँगी तथा उनको सुन्दर फूलमाला अर्पित करूँगी। तत्पश्चात्‌ श्रीश्री राधा-कृष्ण को चन्दन एवं कुमकुम से निर्मित तिलक लगाते हुए, मैं उनके चन्द्रमुखों को लज्जापूर्वक निहारूँगी।
 
 
(5) मैं, सावधानीपूर्वक, राधारानी को नीले रेशमी वस्त्रों से अलंकृत करूँगी तथा उनके चरणकमलों में रत्न -जड़ित स्वर्ण निर्मित नूपुर पहनाऊँगी। मैं पात्र में रखे हुए जल से उनके चरणकमल प्रक्षालित करूँगी तथा उन्हें अपने केशों से पोंछकर सुखाऊँगी।
 
 
(6) कमल-दल से सुशोभित सुन्दर शय्या बिछाकर, मैं उनसे शयन करने का निवेदन करूँगी। तब मैं उनके हेतु श्वेत चामर मृदु-मृदु ढुलाऊँगी।
 
 
(7) मैं एक छोटे-से-स्वर्ण निर्मित सन्दूक से कर्पूर एवं पुंगीफल (सुपारी) से बना सुगन्धित ताम्बूल उनके मुखारविन्द में अर्पित करूँगी, इस प्रकार उन्हें प्रसन्नचित्त देखूँगी।
 
 
(8) हे मेरे गुरुदेव श्रील लोकनाथ गोस्वामी आप करुणासिन्धु एवं दीन-हीन जनों के मित्र हैं। हे मेरे स्वामी, कृपया इस दीन पर अपनी दया-दृष्टि डालें तथा इसे श्रीश्री राधा-कृष्ण, श्री वृन्दावन धाम, तथा श्री कृष्ण की अतिशय प्रिया सखियों की सेवा करने की कृपा प्रदान करें। श्रील नरोत्तमदास ठाकुर भिक्षा की याचना करते हैं।
 
 
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
 
 
 
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