वैष्णव भजन » ठाकुर वैष्णवगण! करि |
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| | ठाकुर वैष्णवगण! करि  | श्रील नरोत्तमदास ठाकुर | भाषा: हिन्दी | English | தமிழ் | ಕನ್ನಡ | മലയാളം | తెలుగు | ગુજરાતી | বাংলা | ଓଡ଼ିଆ | ਗੁਰਮੁਖੀ | | | | ठाकुर वैष्णवगण! करि एइ निवेदन,
मो बड़ अधम दुराचार।
दारुण-संसार-निधि, ताहे डुबाइल विधि,
केशे धरि’ मोरे कर पार॥1॥ | | | विधि बड़ बलवान, ना शुने धरम-ज्ञान,
सदाइ करम पाशे बान्धे।
ना देखि तारण लेश, यत देखि सब क्लेश,
अनाथ, कातरे तेंइ कान्दे॥2॥ | | | काम, क्र्रोध, लोभ, मोह, मद अभिमान सह,
आपन आपन स्थाने टाने।
ऐछन आमार मन, फिरे-येन अंधजन,
सुपथ विपथ नाहि जाने॥3॥ | | | ना लइनु सत मत, असते मजिल चित,
तुया पाये ना करिनु आश।
नरोत्तम दासे कय, देखि शुनि लागे भय,
तराइया लह निज पाश॥4॥ | | | शब्दार्थ | (1) हे वैष्णव ठाकुर! मेरा निवेदन सुनिए, मैं अत्यंत अधम और दुराचारी हूँ। मेरे दुर्भाग्य ने मुझे इस दुःखमय संसार सागर में डुबो दिया है, जो अत्यंत भयानक है। आप मेरे केशों को पकड़कर मुझे पार कीजिए। | | | (2) विधि अत्यंत बलवान है वह किसी धर्म-ज्ञान को नहीं सुनती, वह सदा ही उन्हें कर्मपाश में बान्धे रखती है। मैं इससे पार होने का उपाय ही नहीं देख पाता हूँ। जहाँ भी देखता हूँ वहाँ क्लेश दीखता है। इसलिए मैं अनाथ की भाँति रो रहा हूँ। | | | (3) काम, क्र्रोध, लोभ, मोह, मद, अभिमान के साथ मुझे अपनी-अपनी ओर खींच रहे हैं। मेरा मन एक अंधे के समान, सुपथ-कुपथ को जाने बिना ही इधर-उधर भटक रहा है। | | | (4) मैंने भगवद्भक्तों के मार्ग का अनुसरण नहीं किया। मेरा चित्त सदा असत्संग में ही डूबा रहा। श्रील नरोत्तमदास ठाकुर कहते हैं, ‘‘हे वैष्णव ठाकुर! मैं आपके चरणों का आश्रय नहीं ले सका। संसार की दारुण अवस्था देख-सुनकर मुझे भय लग रहा है। अतः आप कृपा करके मुझे अपने श्रीचरणों में स्थान प्रदान कीजिए। ’’ | | | हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ | | |
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