|
|
|
हरि हरि! कृपा  |
श्रील नरोत्तमदास ठाकुर |
भाषा: हिन्दी | English | தமிழ் | ಕನ್ನಡ | മലയാളം | తెలుగు | ગુજરાતી | বাংলা | ଓଡ଼ିଆ | ਗੁਰਮੁਖੀ | |
|
|
हरि हरि! कृपा करि’ राख निज-पदे।
काम-क्रोध छय जने, लइया फिरे नाना स्थाने,
विषय भूँजाय नानामते॥1॥ |
|
|
हइया मायार दास, करि नाना अभिलाष,
तोमार स्मरण गेल दूरे।
अर्थ-लाभ एइ आशे, कपट-वैष्णव-वेशे,
‘भ्रमिया बुलये’ घरे घरे॥2॥ |
|
|
अनेक दुःखेर परे, लयेछिले ब्रज-पुरे,
कृपाडोर गलाय बान्धिया।
दैवमाया बलात्कारे, खसाइया सेइ डोरे,
भवकूपे दिलेक डारिया॥3॥ |
|
|
पुनः यदि कृपा करि’ ए-जनारे केश धरि,
टानिया तुलह ब्रजधामे।
तबे से देखिये भाल, नतुबा पराण गेल,
कहे दीन दासनरोत्तम॥4॥ |
|
|
शब्दार्थ |
(1) हे हरि! आप कृपा करके मुझे अपने श्री चरणों में रखिए। काम, क्रोध आदि छः शत्रु मुझे इधर-उधर ले जाकर अनेक प्रकार से विषयों का भोग कराते हैं। |
|
|
(2) आपको भूलकर मैं माया का दास बन गया तथा अनेकों भौतिक इच्छाओं की कामना करने लगा। इसी कारणवश मैं आपको पूणरूपेण भूल गया। धन प्राप्ति की आशा में, मैं वैष्णव वेश धारणकर लोगों के घर-घर में घूमता रहता हूँ। |
|
|
(3) आप मुझे अनेक दुःखों के पश्चात् दयावश अपनी कृपारूपी रस्सी को मेरे गले में बान्धकर वृन्दावन वापस ले आये। परन्तु आपकी बहिरंगा शक्ति (मायादेवी) ने यह रस्सी खोलकर पुनः मुझे संसार-कूप में धकेल दिया। |
|
|
(4) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर दीनतावश कहते हैं, ‘‘पुनः एकबार आप मेरे बालों को पकड़कर इस भवकूप से बाहर स्थित करें, तभी मैं बच सकता हूँ, अन्यथा मेरे प्राण ऐसे ही निकल जायेंगें। ’’ |
|
|
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
|
|
|