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गौराङ्ग करुणा करो  |
श्रील नरोत्तमदास ठाकुर |
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गोराङ्ग करुणा करो, दीन हीन जने।
मो-सम पतित प्रभु, नाहि त्रिभुवने॥1॥ |
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दन्ते तृण धरी’ गौर, डाकि हे तोमार।
कृपा करी’ एसो आमार, हृदय मंदिरे॥2॥ |
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जदि दया ना करिबे, पतित देखिया।
पतित पावन नाम, किसेर लागिया॥3॥ |
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पडेचि भव तुफाने, नाहिक निस्तार।
श्रीचरण तरणी दाने, दासे कर पार॥4॥ |
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श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु, दासेर अनुदास।
प्रार्थना करये सदा, नरोत्तम दास॥5॥ |
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शब्दार्थ |
(1) हे मेरे प्रिय भगवान् गौरांग कृपया इस निम्न एवं दीन-हीन आत्मा पर अपनी कृपा कीजिए। हे भगवान्! इन तीनों लोको में मुझसे और अधिक पतित कोई भी नहीं है। |
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(2) हे भगवान् गौर, अपने दाँतों के बीच घास के तिनके को पकड़े (या दबाए) मैं, आपको अब पुकार रहा हूँ। कृपया मुझ पर दया कीजिए एवं मेरे हृदय के मन्दिर में आकर वास कीजिए। |
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(3) यदि आप अपनी कृपा प्रदान नहीं करेंगे, यह देखते हुए भी कि मैं कितना पतित हूँ, तब आप पतित- पावन क्यों कहलाते हैं, पतितों के दयालु रक्षक? |
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(4) मैं इस भौतिक जगत के सागर में, अत्याधिक प्रचंड तूफान से आक्रांत लहरों के बीच में धकेला गया हूँ, जिसमें से बच कर नहीं निकला जा सकता। कृपया अपने दिवय चरण कमलों का उपहार मुझे दे दें, जिसकी तुलना एक नाव से की गई है जिसमें बैठकर तुम्हारा दास जन्म और मृत्यु के सागर को पार कर सके। |
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(5) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु के दास का दास, नरोत्तम दास निरन्तर यह प्रार्थना करता है। |
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ |
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