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आज हमारे सब्सिश्व लोग वैश पूजा तिती मना रहे है।
वैश पूजा तिती, यानि गुरु का जो ज़र्मदिन है, वो वैश पूजा तिती कही जा दूंगा।
जो अशल गुरु है वैश देव, वेदव वैश।
और वैश देव का परंपराण है।
विद्या बतदाशे, जैसे भरुबद गीता में मताया है, एवं परंपराण प्राक्तं यिमं राजर्षयो विद्यु।
ये जो वैधिक ज्ञान है, ये परंपराण से मिन्तिय है।
विद्याबत्ता से नहीं मिनतिय है। परंपराण से।
वो नष्ट परंपर है। वो परंपरा जब नष्ट हो जाता है, फिर वो जो वैदिक ज्ञान, वो फिर खराब हो जाता है।
इसलिए सुनातम गुष्णा में बताया है, जो आवैश्णव मुखद गीव्न, फूत हरी कथामृतं, स्रवमं नाकर्तव्यं।
जो वैश्णव सदाचार संपन्न में हैं, उनका मूँस है।
वो सुनना नहीं चाहित। जैसे बगवान की कथा सुनना नहीं चाहिए।
बगवान की कथा में दोर्ष जाया हुआ।। भूत हरी कथामृतं। कहते हैं-
जो हरी कथा जो है ओ अम्रित शरूप है, फिर भी, अम्रित शरूप होता हुए
कि वश्णम नहीं है, उसको मूसे सोनना नहीं चाहिए। मना किया है, सना कहो। क्यों? यह सपच्छिष्ट भू पयोजथा है। दूद जो है, यह अमृत है। परन्तु जदी शाप उसमें जीवा लगा देती है, तो वो फिर जार हो जाती है।
और स्रिमन महाप्रभू भी यही बताया है कि मायाबादी भाष्य सुनिले होये सौप बुर्णावे।
इस शास्त्रादी गृथ जो है, बेदाली, सुर्थी, इसलिए बैदिक शास्त्र को सुर्थी कहीं आगे, सुर्थी का अर्थ होता है जए शिष्य पराम्पृ रद्शे उसको सुनने चाहिए।
गुरु शिष्य को सुनाते हैं फिर वह अपने शिष्य को सुनाते हैं वह अपने को शिष्य को सुनाते हैं इसी प्रकार संप्रदाय व्रम्म संप्रदाय दुद्र संप्रदाय श्री संप्रदाय
इसी प्रतार सब संप्रदाय, कुमार संप्रदाय, तो संप्रदाय विहिन आजे, मंतराश हे विभदा,
तार ये संप्रदाय विहिन हो करते, मन वाफे, जो विदार्थ करते हैं, वो विभदा है, उसका कुछ की मत नहीं है,
तो इ जो व्याश भूजा, यानि हम लोग व्याश संप्रधाय रहे हैं
व्याश का सिश्यो नारत, नारत का सिश्यो, नैं व्याश, नारत का सिश्यो, आमें सॉरी
व्याश देव है, और व्याश देव का सिश्यो, शुगदेव बुर्छानी, इसीपरिका
परंपरासे मध्याचार्य, फिर मध्याचार्य संप्रदाने माध्यापेंद्र पूरी,
फिर उनके शीष्या हीश्या पूरी, उनके शीष्या स्तिचैतर्य महात्रभू,
उनके शिष्या गोश्यानी, सरगुश्यानी, सिरुप्षनातन भठ्व रगुनार, इसी कुरकार संप्रदाय में हम लोग हैं, इसलिए हमारा संप्रदाय नाम है माध्धव गोवरिय संप्रदाय।
तो संप्रदाय का अर्थोतर है, जो संप्रदाय में जो आचार्ज हैं, वो अंट संट इधर इधर बगते नहीं, वो जो गुरु परंपरा से जो स्रवन करते हैं, उनी को बताते हैं।
तो इसलिए अपना गुरु दे को जन्म तिति है, उसको वैश पूजा कहा जाता है।
महिला, अश्वन में वैश दे गुरु हैं, और ये आशन को वैश आशन कहा जाता है।
ये परंपरा सुत्र से जो गुरु आते हैं, वो आशन में उसको बैठने का जगा दिया जाता है।
तो ये हमारे जो सब शिष्य हैं आज ये व्याश पुजा का आयोजन किया है और वो लोग पुजा करने हैं
तो इसका मतलब यह नहीं है जो अंग्रो उपासना कि मैं भगवान हो गया है और इससे सब पुजा ले रहे हैं दिखावटी करने के लिए
वो बात नहीं है बात यह है कि शास्त्र में कहते हैं कि जश्व देवे पराभकती तथा देवे तथा जुरौव तश्याईते कतिताज अर्था प्रताशंते महा
ये जो वैलीग्या लाब करने के लिए एक ही उपाय है जश्व देवे पराभकती
भगवान में
शाहटी
पराभक्ति अप्राकित भक्ति और जैसे भवमार में अप्राकित भक्ति उसी प्रकार गुरू में भी अप्राकित भक्ति
जस्टदेवे पराभक्ति जथादेवे तथा गुरू
तो ये अभ्यास करना चाहिए, और उसको शिखाने के लिए ये बैटने पड़ता है, उनको पुजा लेने पड़ता है, और उनको शिखाने पड़ता है, ये उचीत है, इसलिए बैच पुजा उन्हें स्थान किया जाता है,
और वो लोगी पुजा करते हैं, और जो इसकी सुध्या है, वो आचार्यों, आचार्यों उपासनम, शात्र में बहुमाईन स्वयंग बताते हैं, कि आचार्यों का उपासनम करनी चाहिए,
तो आप लोग क्रिपा करके आया हैं, धर्नमात्र, और ये कृष्ण कांशास्ट्रेस, मुव्मेंट, चारां दुनियां में ये सब सिधाते हैं, भूइदिक पंथा, स्रोत्य पंथा, स्रोत्यं ब्रह्मनिष्ठं, ब्रह्मनिष्ठा करने के लिए ये स्रोत्य पंथा जो है,
चैतर्ण महाभू भी बताता है, प्रुभवश्या, नितुषिख्वा, समय में कि गुरु क्रिष्ण कृपाय पाय भक्ति रता बीज,
गुरु और कृष्ण का कृपा से भक्ति रता जो है, उसको जो बीज है, उसको प्राप्त करता है, ये सब विचार है, इसलिए वैश पूजा शिष्ण के लिए अवश्य कर्तब्ब है, गुरु शिखाएंगे, ये मतलब नहीं है,
जो उसे कुछ पूजा लेके अपना कोई प्रतिष्ठा भराने के लिए, ये मतलब नहीं है, तो हमारा कोई सारा दुनिया में एक सो भूर्ष सेंटर है, वो अपना अपना सा पुष्पान्जली किताब में छपा करके,
ये लोग प्रति वर्ष में ऐसी किताब छपत हैं, बैश पुजा में गुरु को देने के लिए, तो दो चार उसमें प्रबंग है, स्रिमा बर्मानंद स्वामी, वो आप लोगों को थोड़ा सुना देंगे, फिर आप लोग प्रशार पा करके किपा करेंगे.
यह पर देशें पर प्रयार है, इस फ़ौर्मली मेंग वास्त, अकर्ण नार विषात्रे उसे.
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥