श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 7: भगवद्-विज्ञान  »  अध्याय 3: हिरण्यकशिपु की अमर बनने की योजना  »  श्लोक 15-16
 
 
श्लोक  7.3.15-16 
 
 
न ददर्श प्रतिच्छन्नं वल्मीकतृणकीचकै: ।
पिपीलिकाभिराचीर्णं मेदस्त्वङ्‌मांसशोणितम् ॥ १५ ॥
तपन्तं तपसा लोकान् यथाभ्रापिहितं रविम् ।
विलक्ष्य विस्मित: प्राह हसंस्तं हंसवाहन: ॥ १६ ॥
 
अनुवाद
 
  हंसयान पर सवारी करने वाले ब्रह्माजी पहले तो नहीं देख सके कि हिरण्यकशिपु कहाँ है, क्योंकि उसका शरीर बाँबी, घास और बाँस के डंडों से ढका हुआ था। चूंकि हिरण्यकशिपु लंबे समय से वहीं था, इसलिए चींटियाँ उसकी खाल, चर्बी, मांस और खून को चाट चुकी थीं। तब ब्रह्माजी और देवताओं ने उसे ढूँढ निकाला। वह बादलों से ढके सूर्य की तरह अपनी तपस्या से सारी दुनिया को तपा रहा था। आश्चर्यचकित होकर ब्रह्माजी हँसे और फिर उससे इस प्रकार बोले।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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