यावद् भ्र्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् ।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति ॥ ८ ॥
अनुवाद
शरीर के पोषण के लिए जितना धन आवश्यक हो, उतने का ही स्वामित्व अधिकार प्राप्त करना चाहिए, और जो अधिक धन का स्वामी बनने की इच्छा करता है उसे चोर माना जाना चाहिए और प्रकृति के नियमों द्वारा दंडनीय माना जाना चाहिए।