यदि कोई ब्रह्मचारी, संन्यासी या वानप्रस्थ न होकर केवल गृहस्थ हो तो भी उसे धर्म, अर्थ या काम की पूर्ति के लिए अत्यधिक परिश्रम नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि गृहस्थ जीवन में भी उसे उसी से संतुष्ट रहना चाहिए जो स्थान और समय के अनुसार न्यूनतम प्रयास से भगवान की कृपा से उपलब्ध हो सके। मनुष्य को अपने आपको उग्र कर्म में नहीं लगाना चाहिए।