श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 5: प्रजापति दक्ष द्वारा नारद मुनि को शाप  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  6.5.11 
 
 
भू: क्षेत्रं जीवसंज्ञं यदनादि निजबन्धनम् ।
अद‍ृष्ट्वा तस्य निर्वाणं किमसत्कर्मभिर्भवेत् ॥ ११ ॥
 
अनुवाद
 
  [हर्यश्वों ने नारद के शब्दों का अर्थ इस प्रकार समझा] "भू:" शब्द कर्मक्षेत्र का संकेतक है। यह भौतिक शरीर, जो मनुष्य के कर्मों का फल है, उसका कर्मक्षेत्र है और यह उसे झूठी उपाधियाँ देता है। अनंतकाल से मनुष्य को विविध प्रकार के भौतिक शरीर प्राप्त होते रहे हैं, जो भौतिक जगत से बंधन के मूल हैं। यदि कोई मनुष्य मूर्खतावश क्षणिक सकाम कर्मों में अपने को लगाता है और इस बंधन को समाप्त करने की ओर नहीं देखता तो उसे कर्मों का क्या लाभ मिलेगा?
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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