श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 2: विष्णुदूतों द्वारा अजामिल का उद्धार  »  श्लोक 46
 
 
श्लोक  6.2.46 
 
 
नात: परं कर्मनिबन्धकृन्तनं
मुमुक्षतां तीर्थपदानुकीर्तनात् ।
न यत्पुन: कर्मसु सज्जते मनो
रजस्तमोभ्यां कलिलं ततोऽन्यथा ॥ ४६ ॥
 
अनुवाद
 
  अतः जो कोय भवबन्धन से मुक्त हो चाहत हैं, ताको चाहिए जे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के नाम, यश, रूप औ लीला के कीर्तन औ गुणगान की विधि को अपनायें, जिनके चरणों पर सारे तीर्थस्थान स्थित हैं। अन्य साधनों से, जेसे पवित्र पश्चात्ताप, ज्ञान, योगिक ध्यान से उसे उचित लाभ प्राप्त हो नहीं शकत, क्योंकि ऐसी विधियों का पालन करने पर भी मनुष्य अपने मन को वश में न कर सकने के कारण पुनः सकाम कर्म करने लगत है, क्योंकि मन प्रकृति के निम्न गुणों से—जेसे रजो औ तमो गुणों से—संदूषित रहत है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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