संसारचक्र एतस्मिञ्जन्तुरज्ञानमोहित: ।
भ्राम्यन् सुखं च दु:खं च भुङ्क्ते सर्वत्र सर्वदा ॥ १८ ॥
अनुवाद
अज्ञानता के कारण भ्रम की स्थिति में जीवात्मा इस भौतिक जगत के जंगल में भटकती रहती है। वह सुख और दुख का अनुभव करती है जो उसके पूर्व कर्मों का फल होते हैं। यह हर जगह और हर समय होता रहता है। (इसलिए, मेरी प्यारी माँ, इस घटना के लिए न तो आप दोषी हैं और न ही मैं)।