श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 16: राजा चित्रकेतु की परमेश्वर से भेंट  »  श्लोक 43
 
 
श्लोक  6.16.43 
 
 
न व्यभिचरति तवेक्षा
यया ह्यभिहितो भागवतो धर्म: ।
स्थिरचरसत्त्वकदम्बे-
ष्वपृथग्धियो यमुपासते त्वार्या: ॥ ४३ ॥
 
अनुवाद
 
  हे प्रभु! जीवन के महान उद्देश्य से विचलित न होने वाले आपके दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य का वृत्तिपरक धर्म श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता में उपदिष्ट होना है। जो मनुष्य आपके आदेशानुसार इस धर्म का पालन करते हैं, जड़ तथा चेतन समस्त जीवात्माओं को समान मानते हैं और किसी को उच्च तथा निम्न नहीं मानते हैं, वे आर्य कहलाते हैं। ऐसे आर्य आप की अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की उपासना करते हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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