श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 16: राजा चित्रकेतु की परमेश्वर से भेंट  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  6.16.35 
 
 
तव विभव: खलु भगवन्
जगदुदयस्थितिलयादीनि ।
विश्वसृजस्तेꣷशांशा
स्तत्र मृषा स्पर्धन्ति पृथगभिमत्या ॥ ३५ ॥
 
अनुवाद
 
  हे ईश्वर! ये सारा संसार और इसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार ये सभी आपकी शान और सामर्थ्य हैं। क्योंकि ब्रह्मा और बाकी देवता आपके अंश के भी अंश मात्र हैं, तो सृष्टि रचने की उनकी आंशिक शक्ति उन्हें भगवान नहीं बना सकती। इसलिए खुद को ईश्वर मानने की उनकी सोच उनके अहंकार की निशानी है। यह उचित या वैध नहीं है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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