देवानां शुद्धसत्त्वानामृषीणां चामलात्मनाम् ।
भक्तिर्मुकुन्दचरणे न प्रायेणोपजायते ॥ २ ॥
अनुवाद
सत्त्व गुण सम्पन्न देवता और भौतिक सुख-भोग रूपी रज से निष्कलंक ऋषि भी बड़ी ही कठिनाई से मुकुंद के चरण-कमलों में निर्मल भक्ति कर पाते हैं। [तो फिर वृत्रासुर इतना बड़ा भक्त कैसे बन सका?]