यथा दारुमयी नारी यथा पत्रमयो मृग: ।
एवं भूतानि मघवन्नीशतन्त्राणि विद्धि भो: ॥ १० ॥
अनुवाद
हे देवराज इन्द्र! जैसे काठ की कोई पुतली जो स्त्री की तरह दिखाई देती है या फिर घास-फूस से बना कोई पशु अपने आप न तो हिल-डुल सकता है और न ही स्वतंत्र रूप से नाच सकता है, बल्कि उसे चलाने वाले व्यक्ति पर पूरी तरह से निर्भर रहता है, उसी तरह हम सभी भी परम नियंता सर्वशक्तिमान पुरुषोत्तम भगवान की इच्छा के अनुसार ही नाचते हैं। कोई भी स्वतंत्र नहीं है।