श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 11: वृत्रासुर के दिव्य गुण  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  6.11.27 
 
 
ममोत्तमश्लोकजनेषु सख्यं
संसारचक्रे भ्रमत: स्वकर्मभि: ।
त्वन्माययात्मात्मजदारगेहे-
ष्वासक्तचित्तस्य न नाथ भूयात् ॥ २७ ॥
 
अनुवाद
 
  हे भगवान, हे स्वामी! मैं अपने सकाम कर्मों के फलस्वरूप इस भौतिक जगत में भटक रहा हूँ। इसलिए मैं बस आपके पवित्र और प्रबुद्ध भक्तों की संगति चाहता हूँ। आपकी बाहरी ऊर्जा यानी माया के प्रभाव से मेरा अपने शरीर, पत्नी, बच्चे और घर से लगाव बना हुआ है, लेकिन मैं इससे अब और बंधा नहीं रहना चाहता। मेरे मन, मेरी चेतना और मेरा सब कुछ बस आपके साथ जुड़ा रहे।
 
 
इस प्रकार श्रीमद् भागवतम के स्कन्ध छह के अंतर्गत ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त होता है ।
 
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2024 vedamrit. All Rights Reserved.