श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 11: वृत्रासुर के दिव्य गुण  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  6.11.25 
 
 
न नाकपृष्ठं न च पारमेष्ठ्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
समञ्जस त्वा विरहय्य काङ्‌क्षे ॥ २५ ॥
 
अनुवाद
 
  हे समस्त सौभाग्य के स्रोत भगवान्! न तो मुझे ध्रुवलोक में, न स्वर्गलोक में और न ही ब्रह्मलोक में सुख भोगने की इच्छा है। न तो मैं समस्त पृथ्वी के तथा अधोलोकों का सर्वोच्च अधिपति बनना चाहता हूँ और न ही मैं योग शक्तियों का स्वामी बनना चाहता हूँ। आपके चरणकमलों को छोड़कर मोक्ष की भी मुझे कोई लालसा नहीं है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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