श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 11: वृत्रासुर के दिव्य गुण  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  6.11.1 
 
 
श्रीशुक उवाच
त एवं शंसतो धर्मं वच: पत्युरचेतस: ।
नैवागृह्णन्त सम्भ्रान्ता: पलायनपरा नृप ॥ १ ॥
 
अनुवाद
 
  श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा - हे राजन्! असुरों के प्रधान सेनापति वृत्रासुर ने अपने सेनापतियों को धर्म के नियमों का उपदेश दिया, किन्तु वे कायर तथा भागने की इच्छा रखने वाले सेनापति, भय से इतने विचलित हो चुके थे कि उन्होंने उसके वचनों को ग्रहण नहीं किया।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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