श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 1: अजामिल के जीवन का इतिहास  »  श्लोक 13-14
 
 
श्लोक  6.1.13-14 
 
 
तपसा ब्रह्मचर्येण शमेन च दमेन च ।
त्यागेन सत्यशौचाभ्यां यमेन नियमेन वा ॥ १३ ॥
देहवाग्बुद्धिजं धीरा धर्मज्ञा: श्रद्धयान्विता: ।
क्षिपन्त्यघं महदपि वेणुगुल्ममिवानल: ॥ १४ ॥
 
अनुवाद
 
  मन की एकाग्रता के लिए ब्रह्मचर्य का पालन और अधोगति से बचना आवश्यक है। इंद्रिय सुखों का त्याग करके तप करना चाहिए। इसके उपरांत मन तथा इंद्रियों को वश में करना चाहिए। दान, सत्यव्रत, स्वच्छता और अहिंसा का पालन करना चाहिए। विधि-विधानों का पालन करना चाहिए तथा नियमित रूप से भगवान का कीर्तन करना चाहिए। इस प्रकार धार्मिक सिद्धांतों को समझने वाला श्रद्धावान और धीर व्यक्ति अपने विचारों, वचनों और कर्मों से होने वाले सभी पापों से अस्थायी रूप से शुद्ध हो जाता है। ये पाप बाँस के पेड़ के नीचे लताओं की सूखी पत्तियों के समान हैं जिन्हें आग द्वारा जलाया जा सकता है, यद्यपि उनकी जड़ें अवसर मिलते ही फिर से उगने के लिए शेष रहती हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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