श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 8: भरत महाराज के चरित्र का वर्णन  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  5.8.15 
 
 
अन्यदा भृशमुद्विग्नमना नष्टद्रविण इव कृपण: सकरुणमतितर्षेण हरिणकुणक विरहविह्वलहृदयसन्तापस्तमेवानुशोचन् किल कश्मलं महदभिरम्भित इति होवाच ॥ १५ ॥
 
अनुवाद
 
  यदि भरत महाराज कभी उस मृग को नहीं देख पाते, तो उनका मन बहुत बेचैन हो जाता। वह एक ऐसे कंजूस व्यक्ति की तरह हो जाते थे जिसे कुछ धन मिला था, लेकिन फिर उसे खो देने से वह बहुत दुखी हो गया। जब मृग चला जाता, तो वह चिंतित हो जाते और उससे अलग होने के कारण विलाप करने लगते। इस प्रकार मोहवश होकर वे इस तरह कहते थे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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