श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 6: भगवान् ऋषभदेव के कार्यकलाप  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  5.6.7 
 
 
तस्य ह वा एवं मुक्तलिङ्गस्य भगवत ऋषभस्य योगमायावासनया देह इमां जगतीमभिमानाभासेन सङ्‍क्रममाण: कोङ्कवेङ्ककुटकान्दक्षिणकर्णाटकान्देशान् यद‍ृच्छयोपगत: कुटकाचलोपवन आस्यकृताश्मकवल उन्माद इव मुक्तमूर्धजोऽसंवीत एव विचचार ॥ ७ ॥
 
अनुवाद
 
  वास्तव में भगवान ऋषभदेव का कोई भौतिक शरीर नहीं था, किंतु योग-माया से वे अपने शरीर को भौतिक मान रहे थे। अतएव, सामान्य मनुष्य की तरह व्यवहार करते हुए उन्होंने वैसी मानसिकता का त्याग कर दिया। वे संसार भर में घूमने लगे। घूमते-घूमते वे दक्षिण भारत के कर्णाट प्रदेश में पहुँच गये जहाँ के रास्ते में कोंकण, वेङ्कट और कुटक पड़े। इस दिशा में घूमने की उनकी कोई योजना नहीं थी, किंतु कुटकाचल के निकट उन्होंने एक जंगल में प्रवेश किया। उन्होंने अपने मुँह में पत्थर के टुकड़े भर लिए और जंगल में नग्न अवस्था में और बाल बिखरे हुए पागल की भाँति घूमने लगे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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