श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 6: भगवान् ऋषभदेव के कार्यकलाप  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  5.6.3 
 
 
तथा चोक्तम्—
न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्यनवस्थिते ।
यद्विश्रम्भाच्चिराच्चीर्णं चस्कन्द तप ऐश्वरम् ॥ ३ ॥
 
अनुवाद
 
  सभी विद्वानों ने अपनी-अपनी राय व्यक्त की है। मन स्वभाव से बेहद चंचल है। मनुष्य को चाहिए कि वो इससे मित्रता न करे। अगर हम मन पर पूरा भरोसा करें, तो यह किसी भी पल धोखा दे सकता है। यहाँ तक कि शिवजी श्रीकृष्ण के मोहिनी रूप को देखकर उत्तेजित हो उठे और सौभरि मुनि भी योग की सिद्धावस्था से गिर गए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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