श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 3: राजा नाभि की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव का जन्म  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  5.3.2 
 
 
तस्य ह वाव श्रद्धया विशुद्धभावेन यजत: प्रवर्ग्येषु प्रचरत्सु द्रव्यदेशकालमन्त्रर्त्विग्दक्षिणाविधानयोगोपपत्त्या दुरधिगमोऽपि भगवान् भागवतवात्सल्यतया सुप्रतीक आत्मानमपराजितं निजजनाभिप्रेतार्थविधित्सया गृहीतहृदयो हृदयङ्गमं मनोनयनानन्दनावयवाभिराममाविश्चकार ॥ २ ॥
 
अनुवाद
 
  यज्ञीय अनुष्ठान द्वारा भगवान को प्रसन्न करने के सात अलौकिक उपाय इस प्रकार हैं- (१) बहुमूल्य वस्तुएँ या खाद्य पदार्थ अर्पित करना (द्रव्य), (२) उस स्थान के अनुसार कार्य करना (देश), (३) उस समय के अनुसार कार्य करना (काल), (४) स्तुति करना (मंत्र), (५) पुरोहित का होना (ऋत्विक), (६) पुरोहितों को दान देना (दक्षिणा) और (७) विधि-विधानों का पालन करना। लेकिन सदैव ही इन साधनों से भगवान प्राप्त नहीं हो सकते। फिर भी, ईश्वर अपने भक्त के प्रति दयालु रहते हैं। इसलिए जब भक्त महाराज नाभि ने शुद्ध मन से अत्यंत श्रद्धा और भक्ति के साथ प्रवर्ग्य यज्ञ करते हुए ईश्वर की आराधना और प्रार्थना की, तो अपने भक्तों पर दयालु होने के कारण परम कृपालु भगवान राजा नाभि के समक्ष अपने अपराजेय और आकर्षक चतुर्भुजी रूप में प्रकट हुए। इस प्रकार, भगवान ने अपने भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए अपने भक्त के समक्ष अपना मनमोहक रूप प्रकट किया। यह रूप भक्तों के मन और आँखों को प्रसन्न करने वाला है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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