स होवाच
यथा कुलालचक्रेण भ्रमता सह भ्रमतां तदाश्रयाणां पिपीलिकादीनां गतिरन्यैव प्रदेशान्तरेष्वप्युपलभ्यमानत्वादेवं नक्षत्रराशिभिरुपलक्षितेन कालचक्रेण ध्रुवं मेरुं च प्रदक्षिणेन परिधावता सह परिधावमानानां तदाश्रयाणां सूर्यादीनां ग्रहाणां गतिरन्यैव नक्षत्रान्तरे राश्यन्तरे चोपलभ्यमानत्वात् ॥ २ ॥
अनुवाद
श्रीशुकदेव गोस्वामी ने उत्तर दिया- जब कुम्हार के घूमते हुए चाक पर छोटी-छोटी चीटियां बैठी रहती हैं, तो वे उसके साथ-साथ घूमती हैं, किंतु उनकी गति चाक की गति से भिन्न होती हैं, क्योंकि कभी वे चाक के एक भाग में दिखती हैं तो कभी दूसरे भाग पर। इसी प्रकार राशियाँ तथा नक्षत्र सुमेरु तथा ध्रुवलोक को अपने दाईं ओर रखकर कालचक्र के साथ घूमते हैं और सूर्य तथा अन्य ग्रह चींटी के तुल्य उनके साथ-साथ घूमते हैं। तो भी वे विभिन्न कालों में विभिन्न राशियों तथा नक्षत्रों में देखे जाते हैं। इससे सूचित होता है कि उनकी गति राशियों तथा कालचक्र से सर्वथा भिन्न है।