श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 2: महाराज आग्नीध्र का चरित्र  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  5.2.15 
 
 
रूपं तपोधन तपश्चरतां तपोघ्नंह्येतत्तु केन तपसा भवतोपलब्धम् ।
चर्तुं तपोऽर्हसि मया सह मित्र मह्यंकिं वा प्रसीदति स वै भवभावनो मे ॥ १५ ॥
 
अनुवाद
 
  हे श्रेष्ठ तपस्वी, एक ऐसी सुन्दरता जिसके आगे दूसरों की तपस्या भी नतमस्तक हो जाती है, तुमने इसे कैसे प्राप्त किया? तुमने यह विद्या कहाँ से सीखी? हे मित्र, इस सुन्दरता को प्राप्त करने के लिए तुमने कौन-सा तप किया? मेरी इच्छा है कि तुम मेरे तप में शामिल हो जाओ, क्योंकि हो सकता है कि इस सृष्टि के ईश्वर ब्रह्मा, मुझ पर प्रसन्न होकर तुम्हें मेरी पत्नी बनाकर भेजा हो।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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