श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 2: महाराज आग्नीध्र का चरित्र  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  5.2.12 
 
 
लोकं प्रदर्शय सुहृत्तम तावकं मेयत्रत्य इत्थमुरसावयवावपूर्वौ ।
अस्मद्विधस्य मनउन्नयनौ बिभर्तिबह्वद्भ‍ुतं सरसराससुधादि वक्त्रे ॥ १२ ॥
 
अनुवाद
 
  मित्रवर, क्या तुम मुझे वो जगह दिखा सकते हो जहाँ तुम रहते हो? मैं सोच भी नहीं सकता कि वहाँ रहने वाले लोगों को तुम्हारी तरह उभरी हुई छातियाँ कैसे मिली हैं जो मुझे देखते ही मेरे मन और आँखों को मथ डालती हैं। इन लोगों की मीठी बोली और प्यारी मुस्कान देखकर तो लगता है कि इनके मुँह में अमृत बसा होगा।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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