श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 19: जम्बूद्वीप का वर्णन  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  5.19.4 
 
 
यत्तद्विशुद्धानुभवमात्रमेकं
स्वतेजसा ध्वस्तगुणव्यवस्थम् ।
प्रत्यक्प्रशान्तं सुधियोपलम्भनं
ह्यनामरूपं निरहं प्रपद्ये ॥ ४ ॥
 
अनुवाद
 
  जिन भगवान् का विशुद्ध रूप (सच्चिदानन्दविग्रह) भौतिक गुणों से दूषित नहीं है, उन्हें विशुद्ध चेतना के द्वारा ही देखा जा सकता है। वेदान्त में उन्हें अद्वितीय बताया गया है। अपने तेजवश वह भौतिक प्रकृति के कलंक से अछूता है और भौतिक दृष्टि से ऊपर है, अप्रभावित है, अत: वह दिव्य है। न तो वह कोई काम करता है, न उसका कोई भौतिक रूप अथवा नाम है। केवल श्रीकृष्णभावना में ही भगवान् के दिव्य रूप के दर्शन किये जा सकते हैं। आइये हम भगवान् श्रीरामचन्द्र के चरणकमलों में दृढ़तापूर्वक स्थित होकर उनको सादर नमन करें।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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