श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 18: जम्बूद्वीप के निवासियों द्वारा भगवान् की स्तुति  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  5.18.36 
 
 
यस्य स्वरूपं कवयो विपश्चितो
गुणेषु दारुष्विव जातवेदसम् ।
मथ्नन्ति मथ्ना मनसा दिद‍ृक्षवो
गूढं क्रियार्थैर्नम ईरितात्मने ॥ ३६ ॥
 
अनुवाद
 
  काठ में छिपी हुई आग को अरणी से उत्पन्न कर सकने में ऋषि और मुनि सक्षम हैं। हे प्रभु, परमसत्य को समझने में निपुण ऐसे व्यक्ति आपको हर चीज में, यहाँ तक कि अपने शरीर में भी देखने का प्रयास करते हैं, लेकिन फिर भी आप अप्रकट रहते हैं। मानसिक या शारीरिक क्रियाओं जैसी अप्रत्यक्ष विधियों से आपको नहीं समझा जा सकता है। आप स्वयं-प्रकट होने वाले हैं, इसलिए जब आप देखते हैं कि कोई व्यक्ति पूरे दिल से आपकी खोज में लगा है, तभी आप स्वयं को प्रकट करते हैं। इसलिए मैं आपको अपना विनम्र प्रणाम करता हूँ।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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