श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 18: जम्बूद्वीप के निवासियों द्वारा भगवान् की स्तुति  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  5.18.3 
 
 
अहो विचित्रं भगवद्विचेष्टितंघ्नन्तं जनोऽयं हि मिषन्न पश्यति ।
ध्यायन्नसद्यर्हि विकर्म सेवितुंनिर्हृत्य पुत्रं पितरं जिजीविषति ॥ ३ ॥
 
अनुवाद
 
  अहो! यह कितनी विचित्र बात है कि मूर्ख व्यक्ति सिर पर मंडराती मृत्यु की ओर ध्यान नहीं देता। वह यह अच्छी तरह जानता है कि मृत्यु निश्चित है, फिर भी वह उसके प्रति लापरवाह और बेखबर रहता है। चाहे उसके पिता की मृत्यु हो या पुत्र की, वह उसकी संपत्ति के उपभोग की इच्छा रखता है। दोनों ही स्थितियों में वह अर्जित धन से किसी की परवाह किए बिना सांसारिक सुखों का उपभोग करना चाहता है।
 
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2024 vedamrit. All Rights Reserved.