श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 18: जम्बूद्वीप के निवासियों द्वारा भगवान् की स्तुति  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  5.18.27 
 
 
यं लोकपाला: किल मत्सरज्वरा
हित्वा यतन्तोऽपि पृथक्समेत्य च ।
पातुं न शेकुर्द्विपदश्चतुष्पद:
सरीसृपं स्थाणु यदत्र द‍ृश्यते ॥ २७ ॥
 
अनुवाद
 
  हे प्रभु, ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं जैसे इस ब्रह्माण्ड के श्रेष्ठतम नेताओं से लेकर इस संसार के राजनीतिक नेताओं तक, सभी आपकी सत्ता के ईर्ष्यालु हैं। किन्तु आपकी सहायता के बिना वे न तो पृथक् रूप से और न ही एक साथ मिलकर इस ब्रह्माण्ड के असंख्य जीवों का पालन पोषण कर सकते हैं। आप समस्त मनुष्यों, पशुओं (जैसे गायें और गधे), वनस्पतियों, रेंगने वाले जीवों, पक्षियों, पर्वतों और इस भौतिक संसार में दृष्टिगोचर होने वाली हर एक चीज़ के एकमात्र यथार्थ पालनकर्ता हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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