श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 18: जम्बूद्वीप के निवासियों द्वारा भगवान् की स्तुति  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  5.18.26 
 
 
अन्तर्बहिश्चाखिललोकपालकै-
रद‍ृष्टरूपो विचरस्युरुस्वन: ।
स ईश्वरस्त्वं य इदं वशेऽनय-
न्नाम्ना यथा दारुमयीं नर: स्त्रियम् ॥ २६ ॥
 
अनुवाद
 
  हे प्रभु, जिस प्रकार कोई कठपुतली वाला अपनी नृत्यरत कठपुतलियों को वश में रखता है और एक पति अपनी पत्नी को वश में रखता है, उसी प्रकार आप इस ब्रह्माण्ड की समस्त जीवात्माओं को - चाहे वे ब्राह्मण हों, क्षत्रिय हों, वैश्य हों या शूद्र - अपने वश में रखते हैं। यद्यपि आप प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में परम साक्षी के रूप में निवास करते हैं और उनके बाहर भी विद्यमान हैं, फिर भी समाज, जाति और देश के तथाकथित नेता आपको समझ नहीं पाते हैं। केवल वे ही लोग आपको जान पाते हैं जो वैदिक मंत्रों के कंपन को सुनते हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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