श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 14: भौतिक संसार भोग का एक विकट वन  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  5.14.10 
 
 
क्‍वचित्सकृदवगतविषयवैतथ्य: स्वयं पराभिध्यानेन विभ्रंशितस्मृतिस्तयैव मरीचितोयप्रायांस्तानेवाभिधावति ॥ १० ॥
 
अनुवाद
 
  बद्धजीव कभी स्वयं को सांसारिक मामलों की निरर्थकता से अवगत करा लेता है, तो कभी वह भौतिक आनंद की चीजों को कष्टप्रद मानता है। फिर भी, अपने उत्कट देह की अवधारणा के कारण, उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है, और वह बार-बार भौतिक सुखों की तलाश में दौड़ता रहता है, ठीक वैसे ही जैसे कोई जानवर रेगिस्तान में मृगतृष्णा के पीछे भागता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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