श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 13: राजा रहूगण तथा जड़ भरत के बीच और आगे वार्ता  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  5.13.2 
 
 
यस्यामिमे षण्नरदेव दस्यव:
सार्थं विलुम्पन्ति कुनायकं बलात् ।
गोमायवो यत्र हरन्ति सार्थिकं
प्रमत्तमाविश्य यथोरणं वृका: ॥ २ ॥
 
अनुवाद
 
  हे राजा रहूगण, इस संसार रूपी जंगल में छह प्रबल लुटेरे हैं। जब बद्धजीव किसी भौतिक लाभ के लिए इस जंगल में प्रवेश करता है, तो ये छहों लुटेरे उसे गुमराह कर देते हैं। इस तरह, बद्ध व्यापारी यह नहीं समझ पाता कि वह अपने धन को किस प्रकार खर्च करे और यह धन इन लुटेरों द्वारा छीन लिया जाता है। जैसे जंगल में एक मेमने को उसके रक्षक से दूर ले जाने के लिए भेड़िये, सियार और अन्य हिंसक जानवर होते हैं, वैसे ही पत्नी और बच्चे व्यापारी के दिल में घुसकर उससे तरह-तरह से लूटते हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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