श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 13: राजा रहूगण तथा जड़ भरत के बीच और आगे वार्ता  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  5.13.17 
 
 
तैर्वञ्चितो हंसकुलं समाविश-
न्नरोचयन् शीलमुपैति वानरान् ।
तज्जातिरासेन सुनिर्वृतेन्द्रिय:
परस्परोद्वीक्षणविस्मृतावधि: ॥ १७ ॥
 
अनुवाद
 
  संसार रूपी जंगल में तथाकथित योगियों, स्वामियों तथा अवतारों से ठगे जाने के बाद, जीव उनकी संगति को त्यागकर वास्तविक भक्तों की संगति में आने का प्रयास करता है, लेकिन दुर्भाग्यवश वह परम सद्गुरु या उनके भक्तों के उपदेशों का पालन नहीं कर पाता, इसलिए वह उनकी संगति छोड़कर फिर से उन बंदरों की संगति में वापस चला जाता है जो सिर्फ इंद्रियों की तृप्ति और स्त्रियों में रुचि रखते हैं। वह इन विषयवासनाओं से भरे लोगों की संगति में रहकर और कामुकता और नशाखोरी में लिप्त होकर संतुष्ट हो जाता है। इस तरह वह अपनी कामुकता और नशाखोरी की लत में अपना जीवन बर्बाद कर देता है। वह अन्य विषयीजनों के चेहरों को देखकर भूल जाता है और मौत उसके करीब आ जाती है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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