श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 11: जड़ भरत द्वारा राजा रहूगण को शिक्षा  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  5.11.8 
 
 
गुणानुरक्तं व्यसनाय जन्तो:
क्षेमाय नैर्गुण्यमथो मन: स्यात् ।
यथा प्रदीपो घृतवर्तिमश्नन्
शिखा: सधूमा भजति ह्यन्यदा स्वम् ।
पदं तथा गुणकर्मानुबद्धं
वृत्तीर्मन: श्रयतेऽन्यत्र तत्त्वम् ॥ ८ ॥
 
अनुवाद
 
  जब जीवात्मा का ध्यान भौतिक संसार में इंद्रियों को तृप्त करने में लग जाता है, तो उसका जीवन कष्टों से भरा हो जाता है। लेकिन जब मन भौतिक सुखों से विरक्त हो जाता है, तो मुक्ति का रास्ता खुल जाता है। जैसे दीपक की बत्ती ठीक से न जलने से दीपक काला हो जाता है, लेकिन जब दीपक घी से भर जाता है और ठीक से जलता है, तो उससे उजाला फैलता है। इसी तरह, जब मन इंद्रियों को तृप्त करने में लग जाता है, तो कष्ट होता है और जब यह उनसे विरक्त हो जाता है, तो कृष्ण-भावना का उजाला फैलने लगता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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