श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 11: जड़ भरत द्वारा राजा रहूगण को शिक्षा  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  5.11.12 
 
 
क्षेत्रज्ञ एता मनसो विभूती-
र्जीवस्य मायारचितस्य नित्या: ।
आविर्हिता: क्‍वापि तिरोहिताश्च
शुद्धो विचष्टे ह्यविशुद्धकर्तु: ॥ १२ ॥
 
अनुवाद
 
  माया से रहित जीव के मन में बहुत से विचार और गतिविधियाँ होती हैं जो सदियों से चली आ रही हैं। वे कभी जाग्रत अवस्था में तो कभी स्वप्नावस्था में प्रकट होती हैं, किंतु गहरी नींद या समाधि में वे लुप्त हो जाती हैं। जो व्यक्ति इसी जीवन में मुक्त हो चुका है, (जीवनमुक्त) इन सभी चीज़ों को स्पष्ट रूप से देख सकता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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