श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 10: जड़ भरत तथा महाराज रहूगण की वार्ता  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  5.10.7 
 
 
अथ पुन: स्वशिबिकायां विषमगतायां प्रकुपित उवाच रहूगण: किमिदमरे त्वं जीवन्मृतो मां कदर्थीकृत्य भर्तृशासनमतिचरसि प्रमत्तस्य च ते करोमि चिकित्सां दण्डपाणिरिव जनताया यथा प्रकृतिं स्वां भजिष्यस इति ॥ ७ ॥
 
अनुवाद
 
  इसके बाद, जब राजा ने देखा कि उसकी पालकी अभी भी ऐसे ही हिल रही थी, तो वो बहुत नाराज़ हुआ और कहने लगा- अरे बदमाश! तू क्या कर रहा है? क्या तू जीवित होते हुए भी मर गया है? क्या तू नहीं जानता कि मैं तेरा मालिक हूँ? तू मेरा अपमान कर रहा है और मेरे आदेश का उल्लंघन भी कर रहा है। इस अवज्ञा के लिए मैं अब तुझे मृत्यु के देवता यमराज की तरह सज़ा दूँगा। मैं तेरा सही तरह से इलाज करवाता हूँ, जिससे तू होश में आ जाएगा और ठीक ठाक ढंग से काम करेगा।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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