शास्ताभिगोप्ता नृपति: प्रजानांय: किङ्करो वै न पिनष्टि पिष्टम् ।
स्वधर्ममाराधनमच्युतस्ययदीहमानो विजहात्यघौघम् ॥ २३ ॥
अनुवाद
महाशय, आप कह रहे हैं कि राजा और प्रजा या स्वामी और सेवक के बीच का रिश्ता हमेशा नहीं रहता है। भले ही ये रिश्ते अस्थायी हों, लेकिन अगर कोई व्यक्ति राजा बनता है, तो उसका कर्तव्य नागरिकों पर शासन करना और कानूनों का उल्लंघन करने वालों को दंडित करना है। उन्हें दंडित करके वो नागरिकों को राज्य के नियमों का पालन करना सिखाता है। आपने यह भी कहा है कि बधिर और गूंगे को दंडित करना ऐसा है जैसे चबाए हुए भोजन को दोबारा चबाना या पीसे हुए गन्ने को फिर से पीसना, जिससे कोई फायदा नहीं होता। लेकिन अगर कोई व्यक्ति ईश्वर द्वारा बताए गए अपने कर्तव्यों को निभाता है, तो उसके पापकर्म निश्चित रूप से कम हो जाते हैं। इसलिए, अगर किसी को उसके कर्तव्यों के पालन के लिए मजबूर भी किया जाए, तो भी उसे लाभ होता है, क्योंकि इससे उसके सारे पाप दूर हो सकते हैं।